परमहंस योगानन्दजी से भेंट का अनुभव

डॉ. बिनय रंजन सेन द्वारा

डॉ. सेन, संयुक्त राज्य अमेरिका में भारत के भूतपूर्व राजदूत थे तथा संयुक्त राष्ट्र के खाद्य तथा कृषि संस्थान में महानिदेशक थे। उन्होंने 1990 में श्री दया माताजी की पुस्तक Finding the Joy Within You की प्रस्तावना में यह लिखा था।

लगभग चालीस वर्ष पूर्व मुझे परमहंस योगानन्दजी से मिलने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ, वह दिव्य आत्मा जिनकी चेतना तथा शिक्षाएं इतनी सुंदरता से इस पुस्तक में व्यक्त हुई हैं जो उनकी प्रमुख जीवित शिष्या, श्री दया माताजी द्वारा लिखी गयी है। परमहंसजी से मिलने का अनुभव जीवन की अविस्मरणीय घटनाओं में से एक के रूप में मेरी स्मृति में अंकित हो गया है। यह मार्च 1952 में था। 1951 के अन्त में मैंने संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय राजदूत के रूप में अपना कार्यभार संभाला और अपनी सरकारी यात्रा के अंतर्गत मैंने देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया। लॉस एंजिलिस पहुँचकर सर्वप्रथम परमहंसजी से मिलने का विचार मेरे मन में सर्वोपरि था, जिनकी आत्मसाक्षात्कार की शिक्षाएं संयुक्त राज्य अमेरिका ही नहीं अपितु विश्व के कई देशों की आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को अत्यधिक प्रभावित कर रही थीं।

हालाँकि मैंने परमहंसजी और उनकी गतिविधियों के विषय में काफी सुना था, परन्तु माउण्ट वॉशिंगटन के सेल्फ़-रियलाइज़ेशन केन्द्र में पहुँचकर जो कुछ मैंने देखा, उसके लिए वस्तुत: मैं तैयार नहीं था। जिस क्षण मैं वहाँ पहुँचा मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपने धर्म ग्रन्थों में वर्णित तीन सहस्र वर्ष पूर्व के किसी प्राचीन आश्रम में पहुँच गया हूँ। संन्यास के गेरुए वस्त्रों में सज्जित शिष्यों से घिरा महान् ऋषि वहाँ प्रतिष्ठित था। ऐसा लगा मानो आधुनिक युग की अशांत कोलाहलपूर्ण समुद्र की थपेड़े खाती लहरों में यह स्थान दिव्य शान्ति और प्रेम का द्वीप हो।

परमहंसजी मेरी पत्नी और मेरे स्वागत के लिए द्वार पर आए। उनके दर्शन का प्रभाव अनन्त था। इससे पहले कभी भी मुझे इस प्रकार के उत्थान की अनुभूति नहीं हुई थी। जैसे ही मैंने उनके चेहरे की ओर देखा मेरी आँखें एक अलौकिक तेज से चकाचौंध हो गई — अध्यात्मिकता का तेज जो वस्तुतः उनसे आलोकित हो रहा था। उनकी अपरिमित भद्रता एवं मनोहर अनुकम्पा ने सुखद उष्ण सूर्य-रश्मियों की तरह मुझे और मेरी पत्नी को आच्छादित कर दिया।

अनुवर्ती दिनों में गुरुदेव ने जितना भी हो सका अपने समय का हर क्षण हमारे साथ व्यतीत किया। हमने भारतवर्ष की कठिनाईयों और अपने नेताओं द्वारा बनाई उन योजनाओं के विषय में बातचीत की जो वे देशवासियों की अवस्था को सुधारने के लिए बना रहे थे। मैंने देखा कि उनकी बोधशक्ति एवं सूक्ष्म अंतरदृष्टि न्यूनतम भौतिक समस्याओं तक पहुँच जाती थी, हालाँकि वे आत्मज्ञान प्राप्त महान् पुरुष थे। उनमें मुझे भारत के एक ऐसे सच्चे राजदूत के दर्शन हुए, जो भारत की प्राचीन प्रज्ञा के सार तत्व को विश्व में प्रसारित कर रहे थे।

बिल्टमोर होटल में भोज के अवसर पर उनके साथ का अन्तिम दृश्य, स्थायी रूप से मेरे मानस पटल पर अंकित हो गया है। इन बातों का विवरण अन्यत्र दिया गया है; यह सच में महासमाधि का दृश्य था। यह तत्काल स्पष्ट हो गया था कि एक महान् आत्मा ऐसे ढंग से प्रयाण कर गई थी जो केवल तत्सम आत्मा ही कर सकती थी। मेरे विचार में हममें से किसी को भी शोक की अनुभूति नहीं हुई। सर्वोपरि, ऐसे दिव्य दृश्य का साक्षी होने पर आनन्दातिरेक से परिपूर्ण उत्कर्ष की अनुभूति थी।

उस दिन के बाद अपने कार्य से मुझे कई देशों में जाना पड़ा। दक्षिणी अमेरिका, यूरोप और भारत में वे लोग जो परमहंसजी की दिव्य चेतना से अभिभूत हुए थे, मेरे पास आते और इस महान् पुरुष के विषय में कुछ सुनना चाहते थे। इन लोगों ने उनकी जीवन यात्रा के अन्तिम दिवस के व्यापक रूप में प्रकाशित उन चित्रों को देखा था, जहाँ मैं उस समय उपस्थित था। जो भी मेरे पास आए, उनमें मुझे इस संकटग्रस्त समय में उनके जीवन के लिए दिशा मार्ग-दर्शन की ललक का अनुभव हुआ। मैंने देखा कि महान् गुरु के देहावसान के बाद उनके द्वारा आरम्भ किया गया कार्य समाप्त होने की बजाय समूचे विश्व में अधिकाधिक लोगों पर ज्ञान का प्रकाश फैला रहा है।

उनकी विरासत की आभा उनकी सन्त सदृश शिष्या श्री दया माताजी के अतिरिक्त और किसी में इतनी नहीं चमकती, जिन्हें उन्होंने अपने जाने के बाद अपने चरण कदमों पर चलने के लिए तैयार किया था। अपने प्रयाण से पहले उन्होंने उनसे कहा था, “मेरे जाने के पश्चात्‌, केवल प्रेम ही मेरा स्थान ले सकता है।” वे लोग, जिन्हें मेरी भाँति, परमहंसजी से भेंट का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, श्री दया माताजी में वही दिव्य प्रेम और करुणा की भावना का प्रतिबिम्ब देख पाते हैं जिसने मुझे लगभग चालीस वर्ष पहले सेल्फ़-रियलाइज़ेशन केन्द्र की पहली यात्रा पर प्रभावित किया था। इस पुस्तक में दिए गए उनके शब्द, महान् गुरु से उनके जीवन में प्राप्त ज्ञान और प्रेम के अनमोल उपहार हैं, और जिनका अमिट प्रभाव मुझ पर भी हुआ है।

जैसे हमारा संसार नए युग में प्रवेश कर रहा है हम अंधकार और द्विविधा से इतने भयभीत हैं जितने पहले कभी नहीं थे। हमें रूढ़िगत पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर देश-देश के बीच, धर्म-धर्म के बीच, मानव एवं प्रकृति के बीच के मतभेदों को दूर करके सार्वभौमिक प्रेम, सूझबूझ एवं परहित की नवीन भावना से प्रेरित होकर इन्द्रियातीत सुख की ओर बढ़ना चाहिए। यह भारत के ऋषियों का शाश्वत सन्देश है — जिसे परमहंस योगानन्दजी ने इस युग और आने वाली पीढ़ियों को दिया है। मुझे पूर्ण आशा है कि उनके द्वारा प्रज्वलित यह मशाल, जो अब श्री दया माताजी के हाथों में है, उन असंख्य जिज्ञासुओं का पथ प्रकाशमय करेगी जो अपने जीवन को दिशा देना चाहते हैं।

शेयर करें

Facebook
X
WhatsApp