योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया की शब्दावली

तत्त्व (पाँच) : ब्रह्माण्डीय स्पंदन, या ओम् जो सारी भौतिक सृष्टि को, जिसमें मानवीय भौतिक शरीर भी सम्मिलित है, पाँच तत्त्वों: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश की अभिव्यक्ति द्वारा संरचना करता है। ये संरचनात्मक शक्तियाँ, बुद्धिशील एवं स्पंदनीय प्रकृति की हैं। बिना पृथ्वी तत्त्व के, यहाँ कोई भी ठोस पदार्थ नहीं हो सकता: बिना जल तत्त्व के, कोई तरल अवस्था नहीं हो सकती; बिना वायु तत्त्व के, कोई गैसीय अवस्था नहीं हो सकती; बिना अग्नि तत्त्व के, ताप नहीं हो सकता; बिना आकाश तत्त्व के, ब्रह्माण्डीय चलचित्र को उत्पन्न करने हेतु कोई पृष्ठभूमि नहीं हो सकती। शरीर में, प्राण (विराट स्पंदनकारी ऊर्जा) मेडुला में प्रवेश करता है तथा वहाँ निम्न पाँच चक्रों या केन्द्रों: मूलाधार (पृथ्वी), स्वाधिष्ठान (जल), मणिपुर (अग्नि), अनाहत (वायु), विशुद्ध (आकाश) की क्रिया से पांच तत्त्वीय तरंगों में विभक्त हो जाता है। संस्कृत में इन तत्त्वों को पृथ्वी, अप् (जल), तेज, प्राण एवं आकाश कहा गया है।

त्रिदेव : जब परमात्मा सृष्टि की रचना करते हैं, वे त्रिदेव बन जाते हैं: पिता, पुत्र एवं पवित्र आत्मा या सत्, तत्, ओम्। पिता (सत) सृष्टिकर्ता ईश्वर जो सृष्टि से परे हैं, पुत्र (तत) सृष्टि में विद्यमान ईश्वर की सर्वव्यापक प्रज्ञा है। पवित्र आत्मा (ओम्) ईश्वर की वह स्पन्दनकारी शक्ति है जो सृष्टि को प्रत्यक्ष रूप देती या सृष्टि बन जाती है।

शाश्वतता में ब्रह्माण्डीय सृष्टि की रचना एवं उसकी प्रलय के अनेक युग आए और चले गए (देखें युग)। ब्रह्माण्डीय प्रलय के समय, त्रिदेव तथा अन्य सभी सृष्टि की सापेक्षताएँ एकमात्र परब्रह्म में विलीन हो जाती हैं।

उपनिषद – उपनिषद या वेदांत (प्रकाशित, “वेदों का अंत”), जो चार वेदों के कुछ हिस्सों में पाये जाते हैं, वे आवश्यक सारांश हैं जो हिंदू धर्म के सिद्धांत को आधार बनते हैं।

वेदान्त : शब्दशः ‘वेदों का अन्त’; उपनिषदों अथवा वेदों के उत्तर खण्ड से निकला दर्शन। शंकराचार्य (आठवीं या नवीं शताब्दी के आरम्भ) वेदान्त के मुख्य व्याख्याकार थे, जिन्होंने यह घोषणा की थी कि ईश्वर ही एकमात्र वास्तविकता हैं तथा सृष्टि निश्चित रूप से भ्रान्ति है। क्योंकि एकमात्र मनुष्य ही ऐसी रचना है जो ईश्वर का बोध प्राप्त करने में सक्षम है, उसे स्वयं को दैवी बनाना होगा, अतः उसका कर्तव्य है कि वह अपनी सच्ची प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करे।

वेद : हिन्दुओं के चार धर्मग्रन्थ; ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद। वे यथार्थ रूप से स्तोत्र, कर्मकाण्ड, पाठ का साहित्य हैं, जो मनुष्य के जीवन एवं क्रिया-शैली के सभी पक्षों के आध्यात्मीकरण एवं सशक्तिकरण के लिए हैं। भारत के बृहद् ग्रन्थों में से वेद (संस्कृत : मूल विद्, ‘जानना’) ही मात्र एक ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें लेखक के बारे में बताया नहीं गया है। ऋग्वेद, स्तुति गान को ईश्वरीय दिव्य स्रोत से निर्देशित करता है तथा हमें बताता है कि ये प्राचीन काल से तथा पुनः नई भाषा के वेष में नीचे आए हैं। युग युगान्तरों से ऋषियों, ‘दृष्टा’ को दिव्य रूप से प्रकट हुए ये चार वेद, ‘नित्यत्व’, ‘कालातीत अन्तिमता’ को रखते हैं।

योग : संस्कृत से ‘युज्’, ‘योग’। योग का अर्थ है व्यक्तिगत आत्मा का परमात्मा से एकत्व; तथा इस उद्देश्य को पाने के तरीके। हिन्दू दर्शनशास्त्र के बृहद् साहित्य में योग छः प्राचीन पद्धतियों-वेदान्त, मीमांसा, सांख्य, वैशेषिक, न्याय, तथा योग में से एक है। योग पद्धतियों के भी विभिन्न प्रकार हैं : हठ योग, मंत्र योग, लय योग, कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग तथा राज योग। राज योग राजकीय या वह पूर्णयोग है जिसे योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फेलोशिप सिखाती है, तथा जिसकी भगवान् कृष्ण ने अपने भक्त अर्जुन के समक्ष भगवद्गीता में प्रशंसा की है : “योगी शारीरिक अनुशासन के तपस्वियों से भी महान् समझा जाता है, कर्म या ज्ञान के मार्ग का अनुसरण करने वालों से भी महान् समझा जाता है; इसलिए, हे अर्जुन तुम योगी बनो।” (भगवद्गीता VI : 46) सन्त पतंजलि, योग के अग्रणी प्रचारक, ने योग के आठ निश्चित अंगों का वर्णन किया है जिसके द्वारा राजयोगी समाधि या ईश्वर से एकत्व प्राप्त करता है। ये हैं— (1) यम, नैतिक आचरण; (2) नियम, धार्मिक आचरण; (3) आसन, शारीरिक चंचलताओं को शान्त करने हेतु उचित बैठने का ढंग; (4) प्राणायाम, प्राणों, सूक्ष्म जीवन तरंगों पर नियन्त्रण; (5) प्रत्याहार, अंतर्मुखी होना; (6) धारणा, एकाग्रता; (7) ध्यान तथा (8) समाधि, अधिचैतन्य अनुभव।

योगी : जो व्यक्ति योग का अभ्यास करता है। कोई भी ऐसा व्यक्ति जो दिव्य अनुभूति के लिए वैज्ञानिक प्रविधि का अभ्यास करता है, योगी है। वह विवाहित या अविवाहित, एक सांसारिक जिम्मेदारियों वाला व्यक्ति या एक औपचारिक धार्मिक सम्बन्धों वाला व्यक्ति हो सकता है।

योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया : परमहंस योगानन्दजी की सोसाइटी को भारत में जिस नाम से जाना जाता है। इस सोसाइटी को उन्होंने सन् 1917 में स्थापित किया था। इसका मुख्यालय योगदा मठ, कोलकाता के समीप दक्षिणेश्वर में गंगा के किनारे पर स्थित है तथा इसकी एक शाखा मठ, राँची, झारखण्ड में भी है। पूरे भारत में इसके ध्यान केन्द्र एवं मंडलियों के अलावा, योगदा सत्संग सोसाइटी की प्राथमिक शिक्षा से लेकर स्नातक तक, इक्कीस शैक्षिणक संस्थाएँ भी हैं। योगदा, श्री श्री परमहंस योगानन्दजी द्वारा बनाया गया शब्द ‘योग’ ‘संयोग, सामञ्जस्य, संतुलन’; तथा ‘दा’ ‘जो प्रदान करे’ से लिया गया है। सत्संग का अर्थ है ‘दिव्य साहचर्य या ‘सत्य के साथ साहचर्य’। पश्चिम के लिए, परमहंसजी ने भारतीय नाम को ‘सेल्फ- रियलाइज़ेशन फेलोशिप’ के नाम से अनुवाद किया था। देखें—योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के उद्देश्य एवं आदर्श पृष्ठ 523।

योगदा सत्संग पाठमाला : श्री श्री परमहंस योगानन्दजी की शिक्षाएँ, जिन्हें पाठों की व्यापक श्रृंखला में घर पर पढ़ने के लिए बनाया गया है तथा पूरे विश्व में सभी निष्ठावान सच्चे जिज्ञासुओं के लिए इसे उपलब्ध कराया गया है। इन पाठों में परमहंस योगानन्दजी द्वारा सिखाई गई योग ध्यान की प्रविधियाँ सम्मिलित हैं तथा जो लोग क्रियायोग के पात्र हैं, उनके लिए भी प्रविधि-पाठ इनमें हैं। पाठ्यक्रम के बारे में जानकारी योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया से निवेदन करके प्राप्त की जा सकती है।

योगदा सत्संग पत्रिका : योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया द्वारा प्रकाशित एक त्रैमासिक पत्रिका, जिसमें परमहंस योगानन्दजी के लेख और व्याख्यान; तथा अन्य आध्यात्मिक, व्यवहारिक व सामयिक रुचि और स्थाई मूल्य के सूचनाप्रद लेख दिए होते हैं।

योगदा सत्संग संन्यास परम्परा : प्रथम शंकराचार्य द्वारा स्थापित, प्राचीन स्वामी परम्परा, उनके लिए है, जो ध्यान और कर्तव्यपरायण गतिविधियों के योग आदर्शों के माध्यम से, भगवान की तलाश और सेवा करने के जीवन में पूर्ण त्याग करने के लिए चाह रखते हैं। इस परम्परा के संन्यासी, संस्था के आश्रम केंद्रों में रहते हैं और परमहंस योगानन्द के विश्व भर में फैले कार्यों में कई क्षमताओं में काम करते हैं, जिनमें शामिल हैं: रिट्रीट का संचालन करना, कक्षाएं, और अन्य आध्यात्मिक और दफ्तर सम्बन्धी कार्य करना; प्रत्येक माह योगदा शिक्षाओं के हजारों छात्रों को आध्यात्मिक परामर्श और मार्गदर्शन प्रदान करना; और संस्था की विभिन्न धर्मार्थ गतिविधियों का संचालन करना। संन्यासी, कई अलग-अलग पृष्ठभूमि और उम्र, देश के सभी भागों से आते हैं।

युग : एक युग या सृष्टि की कालावधि, प्राचीन हिन्दू धर्मग्रन्थों में वर्णित। स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी ने ‘कैवल्य दर्शनम् ‘ में 24,000 वर्षों के विषुवीय चक्र का तथा उसमें मानव जाति के वर्तमान स्थान का वर्णन करते हैं। यह कालचक्र प्राचीन ग्रन्थों में प्राचीन ऋषियों द्वारा गणना किए गए अधिक लम्बे सार्वभौमिक कालचक्र के अन्तर्गत है तथा योगी कथामृत के अध्याय 16 में वर्णित है।: “धर्मग्रन्थों का सार्वभौमिक कालचक्र 4,300,560,000 वर्षों के विस्तार का है, और यह सृष्टि का एक दिन होता है। यह बृहत् संख्या सौर वर्ष की लम्बाई और पाई (π) के गुणक (3.1416 वृत्त की परिधि एवं व्यास के अनुपात) के सम्बन्ध पर आधारित है।” “पौराणिक सन्तों के अनुसार, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का जीवन काल 314,159,000,000,000 सौर वर्ष या ‘ब्रह्मा का एक आयुकाल ‘ है।”

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