विचार तथा बुद्धि से परे : अंतर्ज्ञान की असीमित अन्तर्दृष्टि

श्री श्री परमहंस योगानन्द की आध्यात्मिक विरासत से अनमोल ज्ञान-रत्न

अंतर्ज्ञान की क्षमता सभी के पास है, आपके पास भी

ईश्वर की सभी सन्तान सर्वोच्च ज्ञान से सम्पन्न होती है। यह सर्वोच्च ज्ञान, अंतर्ज्ञान है — सब कुछ जान पाने की आत्मा की शक्ति।

अंतर्ज्ञान ईश्वर की वह शक्ति है जो आत्मा को सहज रूप से प्राप्त होती है। इसके द्वारा, बिना किसी माध्यम के सत्य का सीधा ज्ञान होता है।

अंतर्ज्ञान आत्मिक मार्गदर्शन होता है। जिन क्षणों में मनुष्य का मन शांत होता हैं, तब यह स्वाभाविक रूप से मनुष्य में प्रकट हो जाता है। यह लगभग सभी लोगों के अनुभव की बात है कि कभी-कभी आश्चर्यजनक ढंग से उनका कोई “पूर्वानुमान” बिल्कुल खरा उतरता है या फिर उनके विचार सही-सही दूसरे व्यक्ति तक पहुँच जाते है।

चिन्तन की शक्ति की तरह ही अंतर्ज्ञान की शक्ति भी हर व्यक्ति के पास होती है। जिस तरह हम विचारों का संवर्धन कर सकते हैं, उसी तरह अन्तर्बोध को भी विकसित किया जा सकता है। अन्तर्बोध में हम सत् (reality) के साथ, आनन्द के जगत् के साथ, “विविधता में एकता” के साथ, आत्मिक जगत् को निर्देशित करने वाले आंतरिक नियमों के साथ ईश्वर के साथ—समस्वर हो जाते हैं।

…किन्तु इसे विकसित करने की आवश्यकता है : 

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उसके जन्म से ही, ज्ञान की दो शक्तियाँ काम करती हैं : (1) मानवीय तर्कबुद्धि की शक्ति जो संवेदनों, इन्द्रिय बोध तथा धारणा, आदि पर निर्भर होती है तथा (2) अंतर्ज्ञान की शक्ति। इनमें से पहली शक्ति का विकास सामाजिक संस्थाओं तथा पारस्परिक सम्बन्धों द्वारा हो जाता है, परन्तु उचित मार्गदर्शन तथा सही प्रशिक्षण-विधियों के अभाव में दूसरी शक्ति प्रायः अप्रशिक्षित तथा अविकसित रह जाती है।

जब तक अंतर्ज्ञान की शक्ति अविकसित रहती है, व्यक्ति प्रधानतः अपनी सीमित नश्वर बुद्धि द्वारा निर्देशित होता है जिसमें अंतर्ज्ञान की प्रेरणा यदा-कदा ही होती है। इस स्थिति में वह कुछ अच्छे कार्य करता है, पर कई बुरे कार्यों में भी लिप्त हो जाता है, और कई बुरी आदतें बना लेता है। कार्य-कारण नियम अथवा कर्म के सिद्धान्त के कारण वह लाचार होकर अपनी स्व-निर्मित नियति के अनुसार ही चलता है, जिसका प्रायः दुःखद अन्त होता है।

जब हम ईश्वरीय आन्तरिक अंतर्ज्ञान से निर्देशित होकर अपने कर्म करते हैं तो हमारा जीवन सफल, स्वस्थ और सम्पूर्ण होता है तथा उसमें ज्ञान व आनन्द का संतुलन होता है।

अंतर्ज्ञान के विकास से ही सत्य को जाना जा सकता है तब आप समझ पाएंगे कि जीवन का एक अर्थ है। फिर आप चाहे जो भी काम करें, भीतर की आवाज उसमें आपका मार्गदर्शन करेगी।

पशु अधिकतर अपनी सहज प्रवृत्ति से तथा साधारण मनुष्य अपने अहं से निर्देशित होते हैं। परन्तु एक योगी, जो ब्रह्म से जुड़ जाता है, अपनी आत्मा से निर्देशित होता है।

गहनतम ध्यान की वैज्ञानिक प्रविधियों को क्रमबद्ध रूप से सीखने से अंतर्ज्ञान की शक्ति को विकसित किया जा सकता है जिससे आत्म-साक्षात्कार की राह खुलती है।

अंतर्ज्ञान की विशेषताएं

यह इन्द्रिय, मन एवं विचार से भिन्न होता है… 

इन्द्रियाँ एवं मन वे बाहरी द्वार है जिनसे ज्ञान हमारी चेतना में प्रवेश करता है। मानवीय ज्ञान इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है और फिर मन उसका विश्लेषण करता है। यदि तथ्य को ग्रहण करने में इन्द्रियों द्वारा कोई त्रुटि हो जाती है तो उसका विश्लेषण एवं निष्कर्ष भी त्रुटिपूर्ण हो जाते हैं। दूर से लहराता हुआ सफेद महीन वस्त्र एक प्रेतात्मा की तरह प्रतीत हो सकता है। एक अन्धविश्वासी व्यक्ति उसे भूत समझ लेता है। परन्तु पास जाने पर यह निष्कर्ष गलत सिद्ध होता है। हमारी इन्द्रियाँ एवं बुद्धि आसानी से भ्रमित हो सकती हैं क्योंकि वे जगत् की बनायी वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप तथा उनके मूल गुण एवं स्वभाव को नहीं समझ सकतीं ।

मनुष्य की सर्वोच्च क्षमता बुद्धि नहीं, अंतर्ज्ञान है। अंतर्ज्ञान में चूक करने वाली इन्द्रियों अथवा मन के माध्यम से ज्ञान नहीं आता बल्कि आत्मा द्वारा सीधे और स्वाभाविक रूप से आता है।

“अंतर्ज्ञान चेतना में भावना के रूप में प्रकट होता है। इसे अधिकतर हृदय में अनुभव किया जाता है। जब इस प्रकार की भावना ध्यान में आती है तो उसके द्वारा आपको सही मार्गदर्शन और अडिग विश्वास प्राप्त होता है।”

अंतर्ज्ञान भीतर से आता है, विचार बाहर से आते हैं। अंतर्ज्ञान में हमें सत्य का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। विचार में यह ज्ञान अप्रत्यक्ष होता है। अंतर्ज्ञान, एक विचित्र सहानुभूति के कारण, वास्तविकता को पूर्णता में देखता है जबकि विचार इसे छोटे -छोटे टुकड़ों में विभाजित कर देते हैं।

… और इसमें भावना भी शामिल है।

इन्द्रियों और बुद्धि से परे, अंतर्ज्ञान चेतना में भावना के रूप में प्रकट होता है। इसे अधिकतर हृदय में अनुभव किया जाता है। जब इस प्रकार की भावना ध्यान में आती है तो उसके द्वारा आपको सही मार्गदर्शन और अडिग विश्वास प्राप्त होता है। इस अंतर्ज्ञान को आप धीरे-धीरे अधिक समझ सकेंगे और इस पर अमल कर पायेंगे। पर इसका अर्थ यह नहीं कि आप तर्क को छोड़ दें। शान्त, निष्पक्ष तर्क भी अंतर्ज्ञान की ओर ले जा सकता है। अपनी सामान्य बुद्धि (common sense) का इस्तेमाल करें। पर याद रखें कि अहंकार से भरा अथवा भावुकता से भरा तर्क भ्रान्त धारणा तथा ग़लतियों की ओर ले जाता है।

शुद्ध तर्क और निर्मल भावना, दोनों में अंतर्ज्ञान का गुण होता है। शुद्ध तर्क की तरह निर्मल भावना भी स्पष्ट देख सकती है। अधिकतर महिलाओं में अंतर्ज्ञान की शक्ति काफ़ी विकसित रहती है। जब वे अत्यधिक उत्तेजित हो जाती है तभी उनकी अंतर्ज्ञान की शक्ति क्षीण हो जाती है। शुद्ध तर्क भी अंतर्ज्ञानात्मक होता है, परन्तु इसका सही रूप से विकसित होना आवश्यक है, अन्यथा गलत प्रमेय (premise) से निष्कर्ष भी गलत ही होगा। जिस व्यक्ति का तर्क सही होता है, उसकी अंतर्ज्ञान की शक्ति भी—जल्दी या देर से—विकसित अवश्य होती है और यह शक्ति कभी ग़लती नहीं करती ।

“शुद्ध तर्क और निर्मल भावना, दोनों में अंतर्ज्ञान होता है। शुद्ध का गुण होता है। तर्क की तरह निर्मल भावना भी स्पष्ट देख सकती है।”

आपको अनुभव करने के साथ-साथ सोचना भी चाहिये, यदि आपके विचारों में भावना का अभाव होगा तो सही निष्कर्ष पर पहुँचने में आप हमेशा सफल नहीं होंगे। अंतर्ज्ञान समस्त ज्ञान का भण्डार है और भावना उसकी एक अभिव्यक्ति है। भावना और विचार (या तर्क) में संतुलन का होना आवश्यक है, तभी आत्मा, आपके भीतर ईश्वर की दिव्य छवि अपनी पूर्ण प्रकृति को प्रकट कर पाती है। अतः योग आपको सिखाता है कि कैसे अपने तर्क और भावना की शक्तियों में संतुलन स्थापित करें। जिसमें ये दोनों गुण समान मात्रा में नहीं होते, वह पूरी तरह से विकसित व्यक्ति नहीं होता ।

तर्क और भावना का सरस संतुलन, अंतर्ज्ञानयुक्त अनुभूति तथा सत्य को जानने की योग्यता लाता है। इस संतुलन को प्राप्त करने से स्त्री-पुरुष देवता सदृश हो जाते है।

अविकसित अंतर्ज्ञान के परिणाम

अपने वास्तविक स्वरूप से अनजान बने रहना :

अविकसित अंतर्ज्ञान, आत्मा के सामने रखा एक क्रिस्टल (crystal) है, जो दोहरी छवि का निर्माण करता है। आत्मा स्वयं में वास्तविक छवि है। उसका प्रतिबिम्ब—अहं या छद्म आत्मा—असत् है। अंतर्ज्ञान जितना कम विकसित होता है, अहं का प्रतिबिम्ब उतना ही अधिक विकृत होता है। जब मनुष्य अविकसित अंतर्ज्ञान के कारण उत्पन्न इस मिथ्या पहचान (अर्थात् अहं ) से निर्देशित होता है, तो उसका जीवन माया की सभी सीमितताओं तथा झूठे आशयों से घिर जाता है। तब उसके लिए भूल एवं उसके परिणामों से भरा एक अस्त-व्यस्त जीवन अवश्यंभावी हो जाता है।

जब एक मनुष्य स्वयं को शरीर समझ लेता है तो वह दृश्य, गंध, स्वाद, स्पर्श, ध्वनि, भार एवं गति, आदि के संवेदनों के अतिरिक्त और कुछ भी अनुभव नहीं कर पाता।… ईश्वर ने मनुष्य को पृथ्वी पर शारीरिक स्वप्नों का आनन्द लेने के लिए भेजा है न कि स्वयं को शरीर समझ कर, अपने अमरत्व की चेतना को धूमिल करने के लिए।

यदि अचेत हुए बिना कोई व्यक्ति लम्बे समय तक विचारों एवं संवेदनों से पृथक रह सके, तो वह अंतर्ज्ञान के विकास द्वारा आत्मा के स्वभाव को जान सकता है।

“कोई व्यक्ति यदि केवल पुस्तकों और स्कूली पढ़ाई की जगह, अपने मस्तिष्क की कोशिकाओं की ग्रहणशीलता बढ़ाने पर बल दे तो वह कहीं अधिक सफलता प्राप्त कर सकता है।”

“मैं श्वास नहीं हूँ; मैं शरीर नहीं हूँ; न ही माँस-धातु या हड्डियाँ हूँ। मैं मन या भावना भी नहीं हूँ में ‘वह’ हूँ जो श्वास, देह, मन और भावना के पीछे है।” यह जानते हुए कि आप देह या मन नहीं है, जब आप इस संसार की चेतना से परे चले जाते हैं परन्तु फिर भी अपने अस्तित्व के प्रति इतने सजग हो जाते हैं जितना पहले कभी न थे, तब आप उस दिव्य चेतना में समा जाते है जो आप स्वयं ही हैं। आप वही सत्ता है जिसमें ब्रह्माण्ड की सब वस्तुएँ स्थित है।

उन्नत साधक को तब तक गहरा ध्यान करना चाहिए जब तक कि उसके विचार अंतर्ज्ञान में विलीन न हो जाएं। विचारों की तरंगों से मुक्त, अंतर्ज्ञान की झील में योगी अपनी आत्मा के चन्द्रमा का निर्मल प्रतिबिम्ब स्पष्ट देख सकता है।

अविकसित अंतर्ज्ञान से निर्णय त्रुटिपूर्ण होते हैं…

निर्णयों में ग़लती होना, अविकसित अंतर्ज्ञान का परिणाम है। आपमें से अधिकतर लोगों ने यह अनुभव किया होगा कि आप भी बड़े-बड़े काम कर सकते थे तथा महान्। बन सकते थे; परन्तु अंतर्ज्ञान की कमी के कारण आपके भीतर की उस संभावना का अधिकांश भाग सुप्त ही रह गया।

आपके मन द्वारा लिए गए निर्णय आपकी इन्द्रियों द्वारा प्रदत्त सूचनाओं पर आधारित होते हैं, अतः यदि आपकी इन्द्रियाँ भ्रमित हो जाएं तो आप किसी व्यक्ति की वास्तविकता जाने बिना उसे अच्छा समझ सकते हैं आपको यह भी लग सकता कि वह आपका जन्म-जन्मान्तर का साथी है। आप उससे विवाह कर लेते हैं और बाद में तलाक के लिए कचहरी के चक्कर लगाते हैं। लेकिन अंतर्ज्ञान द्वारा ऐसी त्रुटि कभी नहीं होती। उसमें आप किसी व्यक्ति की आँखों या चेहरे या व्यक्तित्व के आकर्षण से प्रभावित नहीं होते, बल्कि वह व्यक्ति वास्तव में कैसा है, इसके बारे में हृदय में सही-सही अनुभव करेंगे।

…जबकि विकसित अंतर्ज्ञान से जीवन में सफलता मिलती है :

प्रगति करने तथा त्रुटियों के कारण उत्पन्न दुःख से बचने के लिए, प्रत्येक वस्तु के सही स्वरूप को समझना आवश्यक है। यह तभी संभव है जब आप अपने अंतर्ज्ञान को विकसित करते हैं। यही इस विषय का व्यावहारिक सत्य है। यही कारण है कि मैं आपसे अंतर्ज्ञान को विकसित करने और फिर हर बात में उसे प्रयोग करने के लिए कहता हूँ। दूसरों के साथ अपने व्यवहार में अपने व्यापार में अपने वैवाहिक जीवन में — अंतर्ज्ञान आपके जीवन के हर पक्ष में आवश्यक है। अंतर्ज्ञान की क्षमता को विकसित न करने से आप गलत निर्णय ले लेते है, गलत व्यापारिक साझेदार चुनते हैं और गलत व्यक्तिगत सम्बन्ध बना लेते हैं।

सफलता के लिए केवल भौतिक उपायों पर निर्भर रहने से सदैव अनिश्चितता की स्थिति बनी रहती है। परन्तु सफलता का अंतर्ज्ञान का तरीका बिल्कुल अलग होता है अंतर्ज्ञान से प्राप्त बोध कभी गलत नहीं होता। यह एक आन्तरिक संवेदनशीलता से आता है—एक भावना के साथ, जिसके द्वारा आपको पहले से ही पता चल जाता है कि आपके विचारे मार्ग पर चलने से आपको सफलता मिलेगी अथवा नहीं।

अंतर्ज्ञान के अभाव में कई लोग किसी ऐसे व्यापार में बहुत सारा पैसा लगा देते है जिसमें उन्हें कोई लाभ नहीं होता। इस तरह वे अपना सब कुछ गँवा देते हैं। अंतर्ज्ञान की शक्ति द्वारा मैंने जो भी निर्णय लिए हैं उनमें मुझे सदा ही सफलता प्राप्त हुई है। यह कभी विफल नहीं हुई।

एक वैज्ञानिक या व्यापारी या कोई अन्य व्यक्ति यदि केवल पुस्तकों और स्कूली पढ़ाई की जगह अपने मस्तिष्क की कोशिकाओं की ग्रहणशीलता बढ़ाने पर बल दे तो वह कहीं अधिक सफलता प्राप्त कर सकता है। संसार किताबों और बाह्य तरीकों से शुरुआत करता है, परन्तु आपको अपने अंतर्ज्ञान की ग्रहणशीलता को बढ़ाने से प्रारम्भ करना चाहिए। आपके भीतर ज्ञान का अनन्त स्रोत है।

अंतर्ज्ञान को विकसित करने के उपाय

सर्वप्रथम सामान्य बुद्धि का विकास करें…

अंतर्ज्ञान अतीन्द्रिय होते हुए भी व्यक्ति को संसार के बारे में अनजान या अव्यवहारिक नहीं बनाता यह व्यावहारिक बुद्धि (common sense) का जनक है, जो अपने परिवेश के प्रति व्यक्ति की अंतर्ज्ञान प्रेरित प्रतिक्रिया भर है।

…फिर अंतर्ज्ञान से मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करें :

सर्वप्रथम अपने लक्ष्य को भली प्रकार से जानें। फिर उसे प्राप्त करने के लिए जो भी करना आवश्यक हो, उसके बारे में समझें चाहे आप कहीं पूंजी लगा रहे हों या कोई व्यापार शुरू कर रहे हों अथवा अपना काम-धन्धा बदलना चाहते हों तो इस विषय में अपनी ओर से पूरी जाँच-पड़ताल, तुलना एवं पूरी क्षमता में बुद्धि का प्रयोग करने के बाद भी उस कार्य को करने में जल्दी न करें जब आपकी बुद्धि तथा सारी खोज-बीन एक दिशा में संकेत करे तो आप ध्यान में बैठें और ईश्वर से प्रार्थना करें। अपने भीतर के मौन में ईश्वर से पूछें कि क्या उस दिशा में आगे बढ़ना उचित होगा। यदि गहराई और जी लगाकर प्रार्थना करने के बाद आपको ऐसा लगे कि कोई चीज आपको उससे दूर हटा रही है तो आप उस काम को न करें । परन्तु यदि आपको अरोध्य सकारात्मक अन्तःप्रेरणा होती है तथा आपके प्रार्थना करने एवं लगातार प्रार्थना करते जाने के बाद भी यह अन्तःप्रेरणा बनी रहती है तब आप इस कार्य की ओर बढ़े दिशानिर्देश के लिए आपकी प्रार्थना सच्ची होनी चाहिए ताकि आपकी अन्तःप्रेरणा वास्तव में ईश्वरीय हो, न कि मात्र आपकी गलत इच्छा का स्पष्टीकरण।

मैंने अपने अंतर्ज्ञान का व्यावहारिक विकास इसी तरह किया। कोई भी कार्य शुरू करने से पहले मैं अपने कमरे मे शान्तचित्त से ध्यान में बैठ जाता हूँ मैं अपने मन के भीतर की शक्ति को बढ़ाता जाता है। फिर अपने एकाग्रचित्त मन का प्रकाश उस लक्ष्य पर डालता हूँ जिसे मैं पाना चाहता हूँ।

हमेशा ईश्वर से सही मार्गदर्शन की प्रार्थना करें यदि आपका अहं अंधा है तथा उसकी आवाज तीव्र है तो वह आपके अंतर्ज्ञान को दबा देगा और आपको गलत राह दिखाएगा परन्तु यदि आप ईश्वर को प्रसन्न करने के उद्देश्य से कोई उपयोगी काम करना चाहते हैं तो ईश्वर आपके कदमों को गलत राह पर जाने से रोक कर सही मार्ग पर ले जाएंगे। ध्यान सर्वाधिक सुनिश्चित मार्ग है… अंतर्ज्ञान की अभिव्यक्ति को मुक्त करने का सर्वाधिक सुनिश्चित मार्ग है प्रभात के समय और रात को सोने से पहले ध्यान करना।

“ईश्वर की भाषा मौन है। जब अशान्त विचार थमते हैं, तभी व्यक्ति ईश्वर की आवाज़ को अपने अंतर्ज्ञान की शान्ति में सुन पाता है। भक्त के मौन में ईश्वर का मौन भंग हो जाता है।”

जब भी आप किसी समस्या का हल अंतर्ज्ञान से खोजना चाहते हों तो सर्वप्रथम ध्यान अथवा मौन में चले जाएं, जैसाकि आपको योगदा पाठों में सिखाया गया है। ध्यान में आप अपनी समस्या पर विचार न करें। आप तब तक ध्यान करें जब तक कि आपको अपने पूरे शरीर के भीतर एक शान्ति का अनुभव न हो—जब तक कि आपकी आत्मा का कोना-कोना एक दिव्य आनन्द से न भर जाये—और आपका श्वास धीमा और शान्त न हो जाए। तब आप अपने भ्रूमध्य (कूटस्थ चैतन्य) तथा हृदय पर एक साथ ध्यान केन्द्रित करें। फिर अन्त में ईश्वर से प्रार्थना करें कि समस्या का हल ढूंढने के लिए, वे आपके अंतर्ज्ञान को निर्देशित करें।

बहुत अधिक सोचने वाले तथा स्पष्टता से सोचने वाले व्यक्ति के बीच के अन्तर को जानना चाहिए।… अंतर्ज्ञान केवल शांति में प्रकट होता है अविकसित मनुष्य में इसकी झलक कभी-कभार ही मिलती है जब विश्रान्ति के समयों में चंचल मन तथा इंद्रियाँ कुछ देर के लिए शांत हो जाती हैं। स्पष्टता से विचार करने वाला व्यक्ति अपनी बुद्धि को अंतर्ज्ञान पर हावी नहीं होने देता। सही निर्णय लेने के लिए वह धैर्यपूर्वक, शांति के साथ, स्वयं को अंतर्ज्ञान द्वारा पूरी तरह निर्देशित होने देता है।

चेतना की उच्चतर अवस्थाओं तथा दिव्य बोध के लिए ध्यान द्वारा मन को उसकी निरंतर चंचल गतिविधियों से हटाना आवश्यक है। तब उस अंतर्मुखी अवस्था में, दैवी संवेदनशीलता यानि अंतर्ज्ञान जागता है।

एक उन्नत क्रियायोगी, जो समाधि में अपनी चेतना एवं प्राण-शक्ति को स्थूल देह तथा इन्द्रियों से खींच लेता है तब वह ऐसे भीतरी जगत् में प्रवेश करता है। जहाँ सच्चा ज्ञान प्रकट होता है। वह मेरुदण्ड तथा मस्तिष्क में स्थित, ब्रह्म के सात पवित्र चक्रों के प्रति जागरूक हो जाता है और उनसे आने वाले समस्त ज्ञान को प्राप्त करता है। इस प्रकार अंतर्ज्ञान प्रेरित आत्म-बोध के द्वारा सत्य से समस्वर होकर वह अपने सभी भौतिक व आध्यात्मिक कर्तव्यों के लिए सही मार्गदर्शन प्राप्त करता है।

योग के विज्ञान का लक्ष्य मन को शान्त करना है जिससे यह आंतरिक वाणी के त्रुटि-रहित परामर्श को बिना किसी विकृति के सुन सके।

आपके अंतर्ज्ञान द्वारा ईश्वर आपसे बातें करते हैं…

यह ज़रूरी नहीं कि परमात्मा दिव्य-दर्शन में एक रूप धारण कर, या भक्त के सामने किसी मूर्त रूप में प्रकट हो, अपने होठों से उस से बातें करें। वे भक्त के जागृत अंतर्ज्ञान के द्वारा ज्ञान के शब्द कह सकते हैं। ईश्वर एक सन्त का रूप धारण कर किसी भक्त को परामर्श दे सकते हैं, परन्तु वे सामान्यतः भक्त के अंतर्ज्ञान युक्त बोध के माध्यम से बात करने का साधारण तरीका अपनाते हैं।

ईश्वर की भाषा मौन है। जब अशान्त विचार थमते हैं, तभी व्यक्ति ईश्वर की आवाज़ को अपने अंतर्ज्ञान की शान्ति में सुन पाता है। यह ईश्वर की अभिव्यक्ति का माध्यम है। भक्त के मौन में ईश्वर का मौन भंग हो जाता है।

किसी भक्त को तब तक संतोष नहीं करना चाहिए जब तक कि वह निष्पक्ष आत्मनिरीक्षण तथा गहन ध्यान द्वारा—जैसे कि क्रियायोग में— अपने अंतर्ज्ञान को इतना विकसित न कर ले कि वह आत्मा और परमात्मा के एकत्व का अनुभव कर सके। यदि कोई भक्त प्रतिदिन थोड़े समय के लिए गहरा ध्यान करे तथा सप्ताह में एक या दो बार तीन-चार घंटों का लम्बा ध्यान करे, तो उसका अंतर्ज्ञान इतना विकसित हो जाएगा कि वह अनवरत रूप से, आत्मा और परमात्मा के बीच होने वाले आनन्द से भरे ज्ञान-वचनों के आदान-प्रदान को अनुभव कर सकेगा। तभी वह उस आन्तरिक संवाद को समझ सकेगा जिसमें आत्मा की परमात्मा से बात होती है यह बातचीत किसी भी मानवीय भाषा में नहीं होती वरन शब्द-रहित अंतर्ज्ञान के आदान-प्रदान द्वारा होती है।

सच्चा धर्म अंतर्ज्ञान पर आधारित होता है।

संसार के सभी सच्चे धर्मो का आधार अंतर्ज्ञान है। प्रत्येक धर्म का एक बाह्य स्वरूप होता है, तथा एक गुह्य या आंतरिक केन्द्र होता है। उसका बाह्य स्वरूप उसकी सार्वजनिक छवि होता है। इसके अंतर्गत उस धर्म के साधारण अनुयायियों के मार्गदर्शन के लिए नैतिक नियम होते हैं और सिद्धांतों, मतों, विवेचनाओं, नियमों तथा रीति-रिवाजों का बाहरी कलेवर होता है। इसके गुह्य पक्ष में आत्मा के परमात्मा के साथ वास्तविक संवाद पर केन्द्रित विधियाँ रहती हैं। इसका बाह्य पक्ष सबके के लिए होता है गुह्य स्वरूप केवल कुछ निष्ठावान् जिज्ञासुओं के लिए होता है। धर्म का गुह्य पक्ष ही अंतर्ज्ञान की ओर ले जाता है, जो सत्य का साक्षात् ज्ञान है।

स्रष्टा के विषय में मात्र बौद्धिक चर्चा से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। परन्तु यदि प्रतिदिन आप उन्हें अपने भीतर खोजने का प्रयास करें तो आप उन्हें पा सकते हैं ईश्वर को प्राप्त करने का रास्ता बुद्धि नहीं अंतर्ज्ञान है।

साधारण मनुष्य, भौतिक जीवन का अध्ययन करने में तथा उसी के कार्यों में व्यस्त रहते हैं इसलिए उनका ज्ञान इन्द्रिय बोधों तथा तार्किक बुद्धि तक सीमित रहता है। अविकसित अंतर्ज्ञान के कारण उनकी सीमित बुद्धि ब्रह्म के सत्य को नहीं समझ पाती—चाहे उस सत्य को उसे समझाया भी जाये यद्यपि प्रचण्ड बुद्धिजीवियों तथा प्रसिद्ध धर्मशास्त्रियों ने आत्मा के विषय में गहन अध्ययन किया भी हो तो भी, इसके बारे में उनकी समझ बहुत कम हो सकती है।

दूसरी ओर, एक नितान्त अनपढ़ व्यक्ति जो गहरा ध्यान करता है, वह अपने निजी अनुभव से आत्मा के स्वरूप के विषय में बता सकता है। आत्मा के बारे में बौद्धिक ज्ञान तथा उस दिव्य सत्ता के वास्तविक बोध के बीच एक गहरी खाई है। अंतर्ज्ञान उस खाई को पार करने का सेतु है।

कई महान् बुद्धिजीवी जो कई भाषाओं के ज्ञाता होते हैं तथा ज्ञान एवं निगमात्मक दर्शन के चलते-फिरते पुस्तकालय होते हैं, उनका ज्ञान भी स्पष्ट रूप से देख सकने वाले अंतर्ज्ञान के अभाव के कारण, भ्रमपूर्ण होता है। यह ज्ञान केवल सापेक्षता के स्तर पर काम करता है, दिव्य-ज्ञान के लिए तो यह बाधक ही है।

केवल अंतर्ज्ञान के द्वारा ही ईश्वर को उनके सभी पहलुओं में जाना जा सकता है हमारी इन्द्रियों उनकी सृष्टि का ज्ञान तो करा सकती हैं, परन्तु ईश्वर का ज्ञान नहीं करा सकतीं। कोई भी विचार या अनुमान, हमें ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं दे सकता, क्योंकि विचार इन्द्रिय-प्रदत्त तथ्यों से परे नहीं जा सकते। विचार, इन्द्रियों की अनुभूतियों को व्यवस्थित कर उनकी व्याख्या मात्र कर सकते हैं।

ईश्वर मन एवं बुद्धि से परे है।… उनका वास्तविक स्वरूप केवल आत्मा के अंतर्ज्ञान की शक्ति द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है हमें ईश्वरीय चेतना को अपने अधिचेतन मन (superconscious mind) से जानना चाहिए — जो मन और बुद्धि का मूल आधार है। मनुष्य को ईश्वर की अनन्त प्रकृति का बोध आत्मा की अंतर्ज्ञान युक्त अधिवेतना द्वारा होता है। ध्यान के आनन्द द्वारा हमें समस्त सृष्टि में फैले अनन्त आनंद की उपस्थिति का बोध होता है। ध्यान में दिखायी देने वाली ज्योति वह दिव्य प्रकाश है जिससे इस मूर्त जगत् की रचना हुई है। इस प्रकाश के दर्शन से व्यक्ति को सभी वस्तुओं के साथ एकत्व की अनुभूति होती है।

“ईश्वर मन एवं बुद्धि से परे हैं।… उनका वास्तविक स्वरूप केवल आत्मा के अंतर्ज्ञान की शक्ति द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है।”

अंतर्ज्ञान से यथार्थ ज्ञान आता है, जो माया का प्रतिकारक है।

माया से मनुष्य इस तरह मदहोश रहता है कि वह उसके सही ज्ञान को नष्ट कर देती है। अज्ञान के अंधकार के कारण मनुष्य हर जगह स्पंदित होने वाले ईश्वरीय प्रकाश को नहीं देख पाता। वैश्विक भ्रम (माया) तथा व्यक्तिगत भ्रम (अविद्या) दोनों मिलकर, ईश्वरीय सर्वव्यापकता को जानने वाली आत्मा की सहज अनुभूति को धुंधला एवं सीमित कर देते हैं। ध्यान द्वारा इन्द्रिय निर्भरता का यह अंधेरा दूर होकर अंतर्ज्ञान आता है। इसके द्वारा व्यक्ति सम्पूर्ण ब्रह्माण्डीय प्रकाश-पुंज के बीच, स्वयं को भी प्रकाश रूप में देख पाता है।

जब मनुष्य दिव्य चेतना के आंतरिक साम्राज्य में स्थित होता है तो उसका जाग्रत अंतर्ज्ञान, द्रव्य (matter), प्राण-शक्ति और चेतना के परदे को भेद देता है, तथा प्रत्येक वस्तु के भीतर छिपी ईश्वरीय सत्ता को प्रकट कर देता है।

जब ध्यान तथा दिव्य शिक्षाओं के भक्तिपूर्ण अभ्यास से अंतर्ज्ञान बुद्धि के विकास को निर्देशित करने लगता है केवल तभी ज्ञान के बदले, भ्रम का विनाश होने लगता है।

दिव्य दर्शन

जीवन ईश्वर द्वारा लिखा गया एक बृहद् उपन्यास है। यदि मनुष्य इसे केवल तर्क द्वारा समझने का प्रयास करेगा तो पागल हो जाएगा। इसीलिए मैं तुमसे अधिक ध्यान करने के लिए कहता हूँ। अपने अंतर्ज्ञान के जादुई प्याले को और विशाल बनाओ और तब तुम इसमें अनन्त ज्ञान के सागर को समेट सकोगे।

जो भक्त देह-चेतना की क्षुद्र दृष्टि से ऊपर उठ जाता है वह दिव्य अंतर्ज्ञान की श्रेष्ठतर दृष्टि से देखने लगता है, और इस तरह समाधि अवस्था में संपूर्ण सृष्टि को सौंदर्य एवं आनंद के रूप में अनुभव कर वह पहले न समझ में आने वाले सभी द्वन्द्वों का समाधान प्राप्त कर लेता है।

गीता में उस सत्य का कितना सुन्दर वर्णन मिलता है, “असंख्य दिव्य परिधानों, मालाओं एवं आभूषणों से सुसज्जित ।” तारे उनके मुकुट में जड़े रत्न है, धरती उनका पायदान है; और आनंदमग्न होकर नाचते हुए जब वे सृष्टि, स्थिति एवं विलय के कालचक्रों के रूप में घूर्णित होते हैं तो उनके आभूषणों की चमक और उनके चोले की झटक ही बिजली, मेघ गर्जन, तूफान एवं प्रलय-भूकंप के रूप में प्रकट होते हैं। दृश्य-संसार की प्रत्येक वस्तु ईश्वर के दिव्य वस्त्र पर सजा एक अलंकार है । इन सबके पीछे दिव्य वास्तविकता (ईश्वर) छिपी हुई है।

धैर्य एवं लगन के साथ ध्यान करें। इससे जो शान्ति प्राप्त होगी, उसके द्वारा आप अंतर्ज्ञान के जगत् में प्रवेश कर जाएंगे। युगों से केवल उन लोगों ने ही ज्ञान प्राप्त किया है जो ईश्वरानुभूति के आंतरिक जगत् में प्रवेश करना जानते थे। जीसस ने कहा था, “जब तुम प्रार्थना करते हो, तब अपने भीतर जाओ और जब तुमने सारे दरवाज़े बन्द कर दिए हों तो चुपचाप अपने पिता से प्रार्थना करो। जब पिता से एकान्त में प्रार्थना की जाती है तो उसका फल सबके सामने मिलता है।”*

इन्द्रियों के सभी द्वार बंद कर तथा उथल-पुथल से भरे इस संसार के साथ उनका सम्बन्ध समाप्त कर अपने भीतर जाएं। तब ईश्वर अपने सभी रहस्य आपके सामने प्रकट कर देंगे।

*मैथ्यू 6:6

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