योग के अन्तर्तम मध्य में क्या है?

“आत्मा का परमात्मा के साथ एक होना योग है — उस सर्वोच्च आनन्द से पुनर्मिलन, जिसे हर कोई ढूँढ रहा है। क्या यह एक अद्भुत परिभाषा नहीं है? परमात्मा के नित्य नवीन आनन्द में आप आश्वस्त हैं, कि जो आनंद आप अनुभव कर रहे हैं, वह किसी भी अन्य प्रसन्नता से अधिक है, और कुछ भी आपको इससे वंचित नहीं कर सकता।”

— परमहंस योगानन्द

प्राचीन काल से ही ध्यान का स्थान भारत के योग दर्शनशास्त्र के केन्द्र के रूप में रहा है। इसका उद्देश्य योग के शाब्दिक अर्थ में पाया जा सकता है : “एकत्त्व” — हमारी व्यक्तिगत आत्मा अथवा चेतना का अनन्त के साथ, शाश्वत आनन्द अथवा परमात्मा के साथ।

परमात्मा की आनंदमयी चेतना के साथ एकत्त्व प्राप्त करने के लिए — और इस प्रकार स्वयं को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त करने के लिए — आवश्यकता है, जाँची-परखी क्रमबद्ध प्रक्रियाओं /प्रविधियों का पालन करते हुए, धैर्यतापूर्वक ध्यान का अभ्यास करने की। अर्थात्, हमें एक वैज्ञानिक विधि की आवश्यकता है।

राज (“राजसी”) योग, ईश्वर-प्राप्ति का वह सम्पूर्ण विज्ञान है — योगशास्त्रों में निर्धारित ध्यान एवं उचित कार्य की क्रमानुसार विधियाँ, जिसे सदियों पूर्व भारत के सनातन धर्म (“शाश्वत धर्म”) की अनिवार्य प्रथाओं के रूप में सोंपा गया है। योग का यही कालातीत एवं सार्वजनिक विज्ञान है, जो सभी सच्चे धर्मों में केन्द्रित गूढ़ शिक्षाओं को रेखांकित करता है।

क्रियायोग की नींव पर आधारित योगदा सत्संग राजयोग की शिक्षाएं, ऐसे जीवन का चित्रण करती हैं जिसमें शरीर, मन और आत्मा परिपूर्ण रूप से प्रमुखता पाते हैं; इसमें निहित है, प्राणायाम (प्राण-शक्ति का नियन्त्रण) प्रविधि जिसका उल्लेख भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता और ऋषि पतंजलि ने योग सूत्रों में किया, परन्तु उसकी कोई व्याख्या नहीं दी है। कई शताब्दियों तक मानव जाति से लुप्त हुए क्रियायोग को आधुनिक युग के लिए पुनर्जीवित किया सुप्रसिद्ध योग गुरुओं की परंपरा ने : महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, स्वामी श्रीयुक्तेश्वर और परमहंस योगानन्द

परमहंस योगानन्दजी को उनके श्रद्धेय गुरुओं ने क्रियायोग को पश्चिम में लाने और विश्वभर में प्रसारित करने के लिए चुना था; और इसी उद्देश्य से उन्होंने सन् 1920 में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना की।

संतुलित क्रियायोग पथ में प्रमुख है — योगदा पाठमाला में से परमहंस योगानन्दजी द्वारा सिखाई गयी ध्यान की वैज्ञानिक प्रविधियों का दैनिक अभ्यास। ध्यान का अभ्यास करने से हम शरीर और मन की चंचलता को स्थिर करते हैं; ताकि हम स्थायी शान्ति, प्रेम, ज्ञान और आनंद को अपने अस्तित्त्व के ही स्वरुप में अनुभव कर सकें — फिर चाहे हमारे आस-पास के संसार में कुछ भी हो रहा हो।

“अधिक ध्यान करें। आप नहीं जानते कि यह कितना अद्भुत है। धन या मानवीय प्रेम या ऐसी कोई भी वस्तु जो आप सोच सकते हैं उस पर घंटों व्यतीत करने की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है ध्यान करना। जितना अधिक आप ध्यान करेंगे, और जितना अधिक आपका मन कार्यरत अवस्था में भी आध्यात्मिकता में केन्द्रित रहेगा, उतना अधिक आप मुस्कुराने में सक्षम होंगे। अब मैं सदैव वहीं हूँ, ईश्वर की आनंदपूर्ण चेतना में। मुझे कुछ भी प्रभावित नहीं करता; चाहे मैं अकेला हूँ अथवा लोगों के साथ, वह ईश्वर का आनंद सदैव मेरे साथ रहता है। मैंने अपनी मुस्कुराहट को बनाये रखा — परन्तु इसे स्थायी रख पाना कठोर परिश्रम था! वैसी ही मुस्कुराहट आपके भीतर है; वैसी ही प्रसन्नता एवं आत्मा का आनंद वहीं है। आपको उन्हें अर्जित नहीं करना है अपितु उन्हें पुनः प्राप्त करना है।”

— परमहंस योगानन्द

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