जन्माष्टमी पर श्री श्री स्वामी चिदानन्द गिरि का संदेश, 2018

20 अगस्त, 2018

प्रिय आत्मन्,

हमारे प्रिय भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म दिवस, जन्माष्टमी, उनके उदात्त जीवन के तेज एवं प्रभुता से विश्व भर में प्रभावित हुए हम सभी के लिये एक महान् आनन्दोत्सव है। ईश्वर द्वारा भेजे गए धर्म के पुनर्स्थापक श्रीकृष्ण, ईश्वर के प्रेम एवं आनन्द के मूर्त रूप में हमारे हृदयों में निवास करते हैं। जिस प्रकार वृन्दावन के गोप-गोपियाँ श्रीकृष्ण की बाँसुरी की मधुर तानों से बरबस ही खिंचे चले आते थे, उसी प्रकार उनकी शाश्वत उपस्थिति की दिव्य मोहकता हमारी आत्माओं को सदा ईश्वर की ओर ले जाए और उनके द्वारा अर्जुन को बताये गए कालजयी सत्य,जोकि अभी भी पवित्र श्रीमद्‍भगवद्‍गीता के माध्यम से हमसे बातें करते हैं, हमारी आत्माओं का मार्गदर्शन करें।

हम कितने ही जन्मों से द्वन्द्व के नित्य-परिवर्तनशील जगत में प्रसन्नता एवं सन्तोष को प्राप्त करने का प्रयास करते रहे हैं, जहाँ कि इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता; परन्तु ईश्वर नहीं चाहते कि हम जीवन की सतह पर, एक के बाद एक आने वाले सुख एवं दु:ख, लाभ एवं हानि की माया की लहरों द्वारा उछाले जाते रहें। वे चाहते हैं कि हम अपनी आत्मा की अविचलित शान्ति और दिव्यता को प्राप्त करने के लिये अपने अन्तर में गहरा गोता लगाएं। जैसे उन्होंने श्रीकृष्ण के माध्यम से अर्जुन का मार्गदर्शन किया, वैसे ही आपके वास्तविक स्वरूप का बोध करने में वे आपकी सहायता करेंगे।

वह यात्रा आत्म-जागरूकता विकसित करने के साथ प्रारम्भ होती है। स्वयं से पूछें, “क्या मैं अपनी आदतों, कामनाओं, तथा अहं की पसन्द और नापसन्द का ही अनुसरण कर रहा हूँ? या मैं पूरी जागरूकता के साथ आत्म-ज्ञान से मार्गदर्शन प्राप्त करने का प्रयास कर रहा हूँ?” आप में अपने जीवन एवं इच्छा-शक्ति का नियंत्रण अपने हाथ में लेने की उससे कहीं अधिक शक्ति है जितनी आप अनुभव कर सकते हैं। जब अर्जुन कमज़ोर पड़ रहे थे, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें उनके वास्तविक, पराक्रमी स्वरूप तथा एक दिव्य योद्धा के रूप में माया के विरुद्ध युद्ध में हथियार न डालने के उनके कर्तव्य का स्मरण कराया। यदि आप भी, अपने गुरु एवं अपनी आत्मा के प्रज्ञापूर्ण मार्गदर्शन का अनुसरण करेंगे, तो आप शान्ति तथा मुक्ति के एक आनन्ददायक भाव का अधिकाधिक अनुभव करेंगे। अशान्ति कारक विचार एवं कर्म हमें बाँधकर रखते हैं; शान्ति-दायक विचार एवं कर्म मुक्ति प्रदान करते हैं। जैसा की हमारे गुरु, श्री श्री परमहंस योगानन्द ने कहा है, “शान्ति आत्मा से उत्पन्न होती है, और वह पवित्र आन्तरिक वातावरण है जिसमें सच्ची प्रसन्नता खिलती है।”

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि ईश्वर की उपस्थिति का पूर्ण अनुभव गुरु-प्रदत्त ध्यान-प्रविधियों के श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक अभ्यास से ही प्राप्त होता है। जैसे-जैसे शरीर एवं मन की चंचलता शान्त होती है, आप अपने हृदय एवं आत्मा में उनका अनुभव करेंगे, जो कि सम्पूर्ण आनन्द, सम्पूर्ण प्रेम, तथा हम अपने जीवन में जो भी अर्जित करना चाहते हैं उसकी सम्पूर्ण योग्यता का स्रोत हैं। ईश्वर में स्थित रह कर, आप को इस अप्रत्याशित जगत से छोटी-छोटी खुशियों की याचना करने की और आवश्यकता नहीं होगी। आपका आनन्द एक उन्नयनकारी प्रभाव उत्पन्न करेगा, जो दूसरों को प्रोत्साहित करेगा। मानवीय-चेतना को ईश्वरीय-चेतना में रूपान्तरित करने के लिये समय एवं प्रयास दोनों ही लगते हैं, परन्तु गुरुजी ने हमें आश्वस्त किया है: “ईश्वर-मिलन की खोज में बिताया गया गहरे ध्यान का प्रत्येक क्षण, समचित्तता के अभ्यास तथा कर्म फलों की इच्छा के त्याग का प्रत्येक प्रयास—दु:ख को समाप्त कर, शान्ति एवं आनन्द को स्थापित करने; कर्म के मिटने और ईश्वर के मार्गदर्शक ज्ञान के साथ अधिक समस्वरता के द्वारा निर्णायक कार्यों में कम त्रुटियाँ होने के रूप में अपना पुरस्कार लाता है।”

मैं प्रार्थना करता हूँ कि जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन का विजय की ओर मार्गदर्शन किया, उसी प्रकार वे आत्म-मुक्ति की ओर आपकी यात्रा को अपने आशीर्वाद प्रदान करें।

जय श्रीकृष्ण! जय गुरु!

स्वामी चिदानन्द गिरि

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