जगन्माता के सान्निध्य में रहना

परमहंस योगानन्दजी की ज्ञान-विरासत में से चयनित अंश

Divine Mother depicting

इस विश्व की रचना करते हुए ईश्वर ने दो पहलुओं को व्यक्त किया है : पुल्लिंग अथवा पितृवत्, और स्त्रीलिंग अथवा मातृवत्। यदि आप अपनी आँखें बन्द कर लें और विशाल, असीम आकाश की कल्पना करें, तो आप अभिभूत और मोहित हो जाते हैं — आप केवल विशुद्ध ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ अनुभव नहीं करते। वह गुप्त, अनन्त क्षेत्र जहाँ कोई सृष्टि नहीं है, कोई नक्षत्र अथवा ग्रह नहीं हैं — केवल विशुद्ध ज्ञान है — वे परमपिता हैं। और प्रकृति अपने हीरे की तरह चमकते तारों, आकाशगंगा, पुष्पों, पक्षियों, बादलों, पर्वतों और आकाश — सृष्टि की असंख्य सुन्दरताओं के साथ — जगन्माता है। प्रकृति में, आप ईश्वर के मातृ पक्ष को देखते हैं, जो सुन्दरता, कोमलता, सौम्यता, और दयालुता से भरपूर है। विश्व में सुन्दरता ईश्वर की रचनात्मक मातृवत् मूलप्रवृत्ति को दर्शाती है, और जब हम प्रकृति में सभी अच्छाई देखते हैं, तो हम अपने अन्दर कोमलता के भाव का अनुभव करते हैं — हम ईश्वर को प्रकृति में माता के रूप में देख सकते हैं और अनुभव कर सकते हैं।

एक जिद्दी बच्चे की भाँति, जगन्माता को तब तक निरन्तर पुकारते रहें, जब तक कि वे यह न कहें, “अच्छा तुम्हें क्या चाहिए?” वे सृष्टि चलाने में अत्यंत व्यस्त हैं, वे तुरंत उत्तर नहीं देतीं, परंतु नटखट बालक के लिए, जो उनके लिए रोता ही रहता है, वे आ जाएँगी।

जगन्माता आपको अपने पास वापस बुलाने के लिए बहुत आतुर हैं, परंतु पहले आपको उन्हें यह सिद्ध करना होगा कि आप केवल उनको ही चाहते हैं। आप अविलंब अनवरत रूप से अवश्य पुकारते ही रहें, तब वे मुस्कुराती हैं और तत्क्षण आपके पास होती हैं। परमसत्ता पक्षपात नहीं करतीं, जगन्माता सबसे प्रेम करती हैं। लेकिन केवल उनके भक्त उनके प्रेम की प्रशंसा करते हैं, उनके प्रेम का प्रत्युत्तर देते हैं। मैं लोगों पर थोड़े से मानवीय प्रेम, अथवा थोड़े से धन की प्राप्ति का प्रभाव देखता हूँ — वे कितने प्रसन्न होते हैं! परंतु यदि वे देख सकें कि जगन्माता में कितनी शक्ति है, कितना आनन्द है, कितना प्रेम है, तो वे अन्य सब कुछ त्याग देंगे।

जगन्माता, मैंने गुलाब की खुशबू में बोलती आपकी वाणी सुनी। मैंने अपनी भक्ति की तुतलाती फुसफुसाहट में आपकी वाणी सुनी। मैंने अपने शोर भरे विचारों के कोलाहल के नीचे से आपकी वाणी सुनी। आपका प्रेम ही मित्रता की आवाज़ के माध्यम से बात करता था। मैंने कुमुदिनी के पुष्प की कोमलता में आपकी मृदुलता को छुआ।

हे जगन्माता, भोर को दूर करो और अपना प्रकाशमय मुख दिखाओ! सूर्य को दूर करो और अपना शक्तिमय मुख दिखाओ! रात्रि को दूर करो और अपना चंद्र समान मुख दिखाओ! मेरे विचारों को हटाओ और अपना ज्ञानमय मुख दिखाओ! मेरी भावनाओं को मिटाओ और अपना प्रेममय मुख दिखाओ! मेरे अहंकार को दूर करो और अपना नम्रतापूर्ण मुख दिखाओ! मेरे अज्ञान को दूर करो और अपना पूर्णतामय मुख दिखाओ!

जैसे ही मैंने अपने अकेलेपन की निर्जनता में आपको पुकारा, आपने भोर को भेदते हुए अपने आनन्द से मेरा स्वागत किया। आपने धूप के पिघले हुए द्वार से उभर कर, मेरे जीवन के पोर पोर में अपनी शक्ति भर दी। आपने मेरी अज्ञानता की रात्रि को चीर कर अपने बोलते हुए मौन की चाँदनी किरणों को प्रकट किया!

जब अन्य लोग समय नष्ट करते हैं, ध्यान करो, और आप देखोगे कि ध्यान में वह मौन आपसे बात करेगा…सर्वत्र मैं दिव्य प्रकृति को माता के रूप में प्रकट होते हुए देखता हूँ। घनीभूत हुआ पानी बर्फ बन जाता है, और इस प्रकार अदृश्य प्रकृति मेरी भक्ति के तुषार द्वारा मूर्त रूप ले सकती है। काश! आप देख भर सकते जगन्माता की वह सुन्दर आँखें जिन्हें कल रात मैंने देखा। मेरा हृदय शाश्वत आनन्द से भर गया। मेरे हृदय के छोटे से पात्र में वह आनन्द और प्रेम नहीं समा सका, जो मैंने उन आँखों में देखा था — मुझे देखती हुईं, कभी-कभी मुस्कुराती हुईं। मैंने कहा, “ओह! और आपको लोग अवास्तविक बताते हैं!” और जगन्माता माता मुस्कुराईं। “यह आप ही हैं जो वास्तविक हैं और अन्य सभी वस्तुएं अवास्तविक,” मैंने कहा, और जगन्माता पुनः मुस्कुराईं। मैंने प्रार्थना की, “हे माँ, आप सभी के लिए वास्तविक बन जाओ।”

दो प्रकार के साधक होते हैं : वे जो एक बन्दर के बच्चे की तरह होते हैं और वे जो एक बिल्ली के बच्चे की तरह होते हैं। बन्दर का बच्चा माँ को दृढ़तापूर्वक पकड़ता है; लेकिन जब वह कूदती है, तो वह गिर सकता है। बिल्ली के बच्चे को उसकी माँ उठा कर चलती है, वह निश्चिंत रहता है उसे जहाँ भी वह रख देती है। बिल्ली के बच्चे को अपनी माता में पूर्ण विश्वास होता है। मैं लगभग ऐसा ही हूँ; सारा उत्तरदायित्व जगन्माता को सौंप दिया है। परन्तु उस मनोवृत्ति को बनाये रखने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति चाहिए। सभी परिस्थितियों में — स्वास्थ्य या रोग, वैभव या निर्धनता, धूप या घने बादल — आपकी भावना अप्रभावित रहनी चाहिए। यहाँ तक कि जब आप काली कोठरी में कष्ट भोग रहे हों, आप अचंभित नहीं होते कि जगन्माता ने आपको वहाँ क्यों रखा है। आपको विश्वास है कि वह सर्वोत्तम जानती है। कभी-कभी जो आपदा प्रतीत होती है आपके लिए एक आशीर्वाद बन जाती है।…

अन्धकार और कुछ नहीं अपितु जगन्माता के दुलारने के लिए आगे बढ़े हाथ की परछाईं है। यह मत भूलना। कभी-कभी, जगन्माता जब आपको दुलारने वाली होती है, उनके छूने से पहले उनके हाथ की एक परछाईं बनती है। इसलिए जब कष्ट आएं, यह मत सोचो कि वह आपको दंड दे रहीं हैं; आप पर छाया डालने वाले उनके हाथ में कुछ आशीर्वाद है, क्योंकि वह आपको उनके और अधिक निकट लाने हेतु है।

आपको पृथ्वी पर ईश्वर के ब्रह्माण्डीय चलचित्र को देखने के लिए और फिर उनमें स्थित अपने निवास में लौटने हेतु भेजा गया था …मैं कहता हूँ, “प्रभु, यह आपका बनाया चलचित्र है। ठीक है। लेकिन मेरी इसमें भाग लेने की कोई चाह नहीं, मात्र इसके कि मैं आपकी इच्छा पूर्ण करूँ। जितना शीघ्र हो सके, मैं आपका कार्य करूँगा और आपके इस नाटक से बाहर निकलूँगा; परन्तु मैं दूसरों को भी इस भ्रामक हास्यप्रद और भयावह नाटक से दूर ले जाना चाहता हूँ।”…

परन्तु जब तक आपके लिए इसका अस्तित्त्व है, तब तक अपने मन में एक ही विचारधारा रखो — ईश्वर…अपनी आँखें बंद करो, ईश्वर के बारे में सोचो, और जगन्माता को अपनी आत्मा से पुकारो। आप यह कभी भी, कहीं भी, कर सकते हैं। आप चाहे कुछ भी कर रहे हों, आप मानसिक रूप से ईश्वर के साथ बात कर सकते हैं : “मेरे प्रभु, मैं आपको खोज रहा हूँ। मुझे आपके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए। मैं सदैव आपके पास रहना चाहता हूँ। आपने मुझे अपने प्रतिबिम्ब स्वरुप बनाया है; और मेरा निवास आपमें है। आपको मुझे अपने से दूर रखने का कोई अधिकार नहीं है। हो सकता है आपके ब्रह्माण्डीय नाटक की माया के प्रलोभन में, मैंने कुछ गलत किया हो; परन्तु क्योंकि आप मेरी माता, मेरे पिता, मेरे सखा हैं, मैं जानता हूँ, आप मुझे क्षमा कर दोगे और मुझे वापस बुला लोगे। मैं घर वापस जाना चाहता हूँ। मैं आपके पास आना चाहता हूँ।”

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