योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया का शताब्दी वर्ष

30 दिसम्बर, 2016

प्रिय आत्मन्,

मेरा हृदय अत्यन्त आनंदित हो रहा है कि हम सब एक साथ मिलकर अपने प्रिय गुरुदेव श्री श्री परमहंस योगानन्द की योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया की स्थापना का यह मंगलमय शताब्दी वर्ष मना रहे हैं। मैं आप सभी को अपनी प्रेमपूर्ण शुभकामनायें तथा ईश्वर के आशीर्वाद प्रेषित करती हूँ, और भारत एवं सम्पूर्ण विश्व के लिए हमारे पूज्य गुरु के योगदान तथा उनका सम्मान करने के लिए अत्यधिक प्रेम एवं जतन से तैयार किए गए अनेक सुन्दर कार्यक्रमों का ध्यान से अवलोकन करते हुए आत्मिक रूप से आपके साथ हूँ। जब मैं सोचती हूँ कि कैसे गुरुजी की योगदा सत्संग सोसाइटी, दिहिका में प्रारम्भ हुए एक छोटे-से “आदर्श जीवन” बाल विद्यालय से बढ़कर बड़े-बड़े आश्रमों वाली एक संस्था में, एक जीवन्त और निरन्तर बढ़ते संन्यासी संप्रदाय में, तथा भारत भर में दो सौ से भी अधिक ध्यान केन्द्रों — और इसके साथ ही साथ अनेक शैक्षणिक संस्थाओं एवं सेवा कार्यों — में बदल गई है, तो मैं इससे गुरुजी को होने वाले अपार आनन्द का अनुभव करती हूँ। यह निश्चित जानिए कि इस उल्लासकारी शताब्दी वर्ष के दौरान वे सभी भक्तों पर — वस्तुत: सारे भारत पर — अपना दिव्य प्रेम एवं आशीर्वाद बरसा रहे हैं, तथा अपनी आत्मा की गहराई से उस प्रत्येक व्यक्ति की सराहना कर रहे हैं जिसके प्रयासों का इस प्रगति में योगदान रहा है।

वाईएसएस की छोटी-सी शुरूआत से अब तक सौ वर्षों में, गुरुदेव को दिव्य प्रेम के एक परिपूर्ण अवतार के रूप में जाना गया है – एक नवीन युग का सूत्रपात करने वाले जगद गुरु जिन्होंने विश्व को रूपान्तरित करने के उद्देश्य से ही जन्म लिया था। ईश्वर ने उन्हें हमारी आत्मा की प्रगति तथा मानवता के आरोही क्रम-विकास को द्रुत करने हेतु आधुनिक युग के लिए एक विशेष साधन, पवित्र क्रियायोग विज्ञान, के प्रसार का उत्तरदायित्त्व प्रदान किया था। अपने प्रथम “आदर्श जीवन” विद्यालय की स्थापना के मात्र तीन वर्ष बाद ही, गुरुजी को राँची में हुए एक दिव्य दर्शन में स्पष्ट हुआ कि इस विशाल कार्य को प्रारम्भ करने के लिए उनके अमेरिका जाने का समय निकट आ गया है। यद्यपि इसके बाद पश्चिम में रहना उनके लिए पूर्वनिर्धारित था, फिर भी उनकी सर्वव्यापी चेतना तथा हृदय में भारत सदा ही बना रहा। अपनी My India कविता में उन्होंने लिखा है : “मैं भारत से इसलिए करता हूँ प्रेम क्योंकि मैंने जाना प्रथम वहीं ईश्वर और सभी सुन्दर वस्तुओं से प्रेम करना।” उन्होंने भारत में अपना यह विशिष्ट कार्य प्रारम्भ किया, और अपनी मातृभूमि को श्रद्धापूर्ण शब्दांजली अर्पित करते हुए अपने भौतिक शरीर का त्याग किया – परन्तु उनकी आत्मा और भारत-प्रेरित कार्य अमर रहेगा।

पश्चिम में अपने कार्य को स्थापित करने से संबंधित असंख्य उत्तरदायित्त्वों के बाद भी, भारत में वाईएसएस तथा अपने शिष्यों के कल्याण हेतु उनकी प्रेमपूर्ण चिन्ता अपरिवर्तित ही रही। जब 1935- 36 में ईश्वर ने उन्हें भारत लौटने का अवसर प्रदान किया, तो उन्होंने सारे देश में व्याख्यान दिए और वाईएसएस के पोषण के लिए तथा इसके भविष्य को सुरक्षित करने के लिए वह प्रत्येक कार्य किया जो वे कर सकते थे। मैंने अनेक बार उन्हें फिर से अपने भारत लौटने की उम्मीद को प्रकट करते सुना। परन्तु जब, अपने अन्तिम दिनों से पूर्व, उन्होंने देखा कि यह जगन्माता की इच्छा नहीं है, तो उन्होंने श्री श्री दया माता को भारत में अपने कार्य की ठीक उसी प्रकार देखभाल करने का उत्तरदायित्त्व सौंपा जैसी वे स्वयं करते। श्री श्री दया माता ने अपने पूरे हृदय से उस पावन विश्वास को पूर्ण किया, और भक्तों के लिए प्रेममयी जगन्माता की सच्ची प्रतिमूर्ति बनकर गुरुदेव के साथ अपनी चेतना की पूर्ण समस्वरता से उन्हें प्रेरित किया। उस उच्च अवस्था से उन्होंने पचास से भी अधिक वर्षों तक गुरुजी के आदर्शों तथा इच्छा के अनुसार वाईएसएस का मार्गदर्शन किया और इसका पोषण करते हुए इसे इसका वर्तमान स्वरूप प्रदान किया। हम हँस स्वामी श्यामानन्द द्वारा उन्हें दी गई अमूल्य सहायता के लिए उनके कृतज्ञ हैं, श्री श्री दया माता के तथा अन्य अनेक निष्ठावान योगदा भक्तों के प्रयासों को सफल बनाने में उनके समर्पण की अहम् भूमिका रही है – यहाँ उन सब भक्तों के नामों का उल्लेख सम्भव नहीं, किन्तु उन सबका हमारे हृदयों में विशेष स्थान है।

मुझे दया माताजी के साथ उनकी अनेक भारत-यात्राओं पर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। सभी अत्यन्त उत्कृष्ट योगदा भक्तों में प्रतिबिम्बित ईश्वर के प्रति शुद्ध, सच्ची भक्ति को, जो कि भारत की विशिष्ट धरोहर है, मैंने भी दया माताजी की तरह ही, सँजो कर रखा है। गुरुजी की मातृभूमि की वे तथा उसके बाद की सभी यात्राएँ मेरी सर्वाधिक बहुमूल्य स्मृतियों में हैं, जो कि मेरे हृदय तथा मन पर अमिट रूप से अँकित हैं। मैं अक्सर उन्हें याद करती हूँ, और एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता जब मैं भारत में गुरुदेव के शिष्यों के लिए, योगदा सत्संग सोसाइटी के कार्य के लिए, तथा उन सबके लिए अपनी गहनतम प्रार्थनाएँ न भेजूँ जो उनके इस विशिष्ट कार्य को आगे बढ़ाने के लिए इतना कुछ कर रहे हैं। जब मैं योगदा गतिविधियों से संबंधित फ़ोटो देखती हूँ, तो मैं इतनी बड़ी संख्या में एकत्र इन उत्कृष्ट आत्माओं को देखकर रोमांचित हो जाती हूँ, जो कि गुरुदेव की शिक्षाओं का गहन अभ्यास करने के लिए इतनी अधिक उत्साहित हैं – जो ध्यान करने और उनके ज्ञान को ग्रहण करने के लिए नियमित रूप से एकत्र होते हैं, और असंख्य तरीकों से उनके कार्य में आनंदपूर्वक अपनी सेवा प्रदान करते हैं। मुट्ठी भर भक्त आज ईश्वर तथा गुरु के प्रेम में एकजुट एक विशाल परिवार बन गए हैं।

गुरुदेव की अपने शिष्यों के कल्याण एवं उन्नति में आज भी उतनी ही रुचि है, जितनी की उस समय थी जब वे हमारे बीच थे, और जब वे आपमें से प्रत्येक व्यक्ति को उनकी ध्यान-प्रविधियों का पूरे मन से अभ्यास करके तथा जगन्माता को प्रसन्न करना ही अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बनाकर प्रगति करते देखते हैं तो यह बात उन्हें सबसे अधिक प्रसन्न करती है। जब वे आपकी आध्यात्मिक समझ को परिपक्व होते तथा आपको ईश्वर के साथ एक अधिक गहन एवं मधुर संबंध विकसित करते देखते हैं तो अत्यन्त आनंदित होते हैं, क्योंकि वे चाहते हैं कि आप सर्वोच्च को प्राप्त करें। एक सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजली जो आप उन्हें अर्पित कर सकते हैं, वह है एक इस प्रकार का भक्त बनना जो ईश्वर-प्रेम तथा सेवा के उन दिव्य आदर्शों का अधिकाधिक ज्वलंत उदाहरण बने जिन पर 100 वर्षों पूर्व गुरुदेव ने इस कार्य की आधारशिला रखी थी।

परमहंसजी के सन्देश ने इसलिए इतने अधिक लोगों को प्रभावित किया है क्योंकि वे आत्मा की एकीकृत करने वाली भाषा – दिव्य प्रेम तथा शाश्वत सत्य की भाषा — में बात करते हैं। उनकी शिक्षाएं तथा ईश्वर के प्रति उनके गहन प्रेम का चुम्बकत्व सांस्कृतिक, जातीय, राष्ट्रीय, तथा धार्मिक असमानताओं के सभी अवरोधों के परे जाता है। गुरुदेव ने हमें बताया है कि वाईएसएस/एसआरएफ़ का प्रभाव एक मन्द पवन की तरह प्रारम्भ होगा और धीरे-धीरे एक प्रचण्ड वायु बन जायेगा जो ईश्वर की सन्तानों के जीवन से अँधकार को हटाने में सहायक होगा। इस शताब्दी वर्ष में हम न केवल इसके प्रारम्भ का बल्कि अच्छाई लाने वाली उस शक्ति में वृद्धि का उत्सव मना रहे हैं। आने वाली शताब्दी में इसके आध्यात्मिक रूप से परिवर्तनकारी प्रभावों का और अधिक गति पकड़ना तय है। गुरुजी ने अपनी वाईएसएस/एसआरएफ़ संस्था की स्थापना पूर्व और पश्चिम की एकता के अपने आदर्श को मूर्त रूप देने तथा अपने प्रेम एवं ज्ञान के एक शाश्वत, शुद्ध माध्यम के रूप में की है, और मैं प्रार्थना करती हूँ कि उस पवित्र विरासत को केन्द्र बनाकर अपने जीवन का निर्माण कर रहे आप सभी के प्रयासों को उनके आशीर्वाद प्राप्त हों। उन प्रयासों के फलस्वरूप आने वाले जिस आन्तरिक रूपान्तरण तथा आनन्दपूर्ण उत्साह को मैंने आपके चेहरों में देखा है, वह इन दिव्य शिक्षाओं की कालजयी शक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण है; और भविष्य में भी उनके कार्य को ऊर्जा प्रदान करता रहेगा। जय गुरु!

ईश्वर एवं गुरुदेव के अनवरत आशीर्वादों के साथ,

श्री श्री मृणालिनी माता

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