यह पोस्ट “आत्म साक्षात्कार : अपने अनंत स्वरूप का ज्ञान,” नामक प्रवचन का एक अंश है, जिसे परमहंस योगानन्दजी के संकलित प्रवचन एवं आलेख के भाग IV, Solving the Mystery of Life में पूर्ण रूप से पढ़ा जा सकता है — जिसे सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप द्वारा 22 जून को, और बाद में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया द्वारा जारी किया जाएगा।

ईश्वर तुम्हें शांति प्रदान करे और यह शांति तुम्हारे भीतर बनी रहे, तुम भीतर और बाहर आनन्द से ओतप्रोत हो जाओ!
तुम्हारे भीतर और चारों ओर शाश्वत शक्ति का सागर विद्यमान है। जिस प्रकार ढक्कन लगी बोतल सागर में तैरती रहती है इसी प्रकार तुम भी चारों ओर से ईश्वर तथा शांति में निमग्न हो। यह जान लो कि इस जीवनरूपी सागर में तुम चाहे जहाँ भी तैर रहे हो तुम महान् शक्ति और शाश्वत जीवन में निमग्न रहोगे।
जैसे-जैसे तुम अपने भीतर विद्यमान ईश्वर तथा उसकी शाश्वत शक्ति को जानते चले जाओगे तुम्हारे जीवन का केन्द्रबिन्दु ही बदलता चला जाएगा। शरीर की क्रियाओं के बजाय तुम्हारा ध्यान इसके पीछे छिपी शाश्वत शांति की ओर अधिकाधिक जाने लगेगा।…
तुम्हारा ध्यान अपने शरीर की अलग-थलग पड़ी तरंग तथा उसके सीमित जीवन पर लगा रहता है; इसलिए तुम ईश्वर के सर्वव्यापी स्वरूप को भूले रहते हो। किन्तु जब तुम यह जान जाते हो कि सभी शरीरों में विद्यमान जीवन तथा सम्पूर्ण चराचर जगत् केवल ईश्वर की चेतना का ही साकार रूप है तो तुम सदा के लिए ईश्वर की उपस्थिति को जान जाते हो।
वैसे तो ईश्वर सदा ही समस्त नक्षत्रों, बादलों तथा धरती, तुम्हारे विचारों, भावनाओं और इच्छाशक्ति में विद्यमान है, किन्तु जब तुम इसे स्वयं में जान जाते हो तब तुम्हें ईश्वर के असीमित स्वरूप से जुड़े होने का ज्ञान होता है। यही आत्मसाक्षात्कार है : इसके बाद ही तुम्हें यह ज्ञात होता है कि तुम सागर के ऊपर तैरती केवल एक तरंग नहीं बल्कि स्वयं महासागर हो।
दिनभर तुम इस शरीर के माध्यम से अपने दैनिक कार्य करते रहते हो, इसलिए अपने आपको शरीर मान लेते हो। किन्तु प्रत्येक रात्रि को ईश्वर तुम्हें इस माया के चंगुल से निकाल लेता है। कल रात को जब तुम स्वप्नहीन गहरी निद्रा में सो रहे थे उस समय तुम स्त्री थे या पुरुष, अमेरिकी थे या हिन्दू, अमीर थे या गरीब? सच तो यह है कि तुम इनमें से कुछ भी नहीं थे। तुम केवल आत्मा थे।
दिन के समय तुम्हें लगता है कि तुम माँस, हड्डियों, स्नायुतंत्र तथा माँसपेशियों से बने एक पिंड हो, किन्तु सोते समय जब तुम अर्ध-अतिचेतन अवस्था में स्वतंत्र रूप से विचरण कर रहे होते हो तब ईश्वर तुम्हारी सारी सांसारिक पदवियाँ तुमसे ले लेता है ताकि तुम उनसे मुक्त होकर यह अनुभव कर सको कि तुम इस शरीर और इसकी सीमितताओं से मुक्त हो — तुम केवल चेतना मात्र हो जो पूर्ण शांति में निमग्न है।
यही व्यापकता तुम्हारा सच्चा स्वरूप है। ध्यान के द्वारा ही तुम अपने इस भूले हुए स्वरूप की स्वतंत्र प्रकृति को पूर्ण रूप से जान सकते हो।
क्या तुम जानते हो कि मैं तुम्हें मौन धारण करने तथा ध्यान करने को क्यों कहता हूँ? मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ जिससे कि तुम ईश्वर की विराटता तथा स्वतंत्रता की तुलना शरीर के बंधनों में बँधी अपनी वर्तमान अवस्था से कर सको। जब ध्यानावस्था में तुम्हारी आँखें बंद होती हैं तो तुम्हें अपना शरीर दिखाई नहीं देता; तुम्हारा ध्यान बंद आँखों के पीछे स्थित अँधेरी गहराइयों पर लगा होता है। जैसे-जैसे तुम्हारा चित्त शांत होता जाता है और ध्यान गहन होता जाता है, तुम्हारा ध्यान अपने इस सीमित शरीर और इंद्रियों से हटता चला जाता है। तुम्हें लगने लगता है कि तुम्हारी चेतना का विस्तार होता जा रहा है और तुम अपने इस पार्थिव स्वरूप से कहीं अधिक विराट होते जा रहे हो।
जैसे-जैसे तुम्हारा यह भीतरी स्वरूप बड़ा होता चला जाता है, तुम्हें यह अनुभव होने लगता है कि तुम स्वयं ही आकाश हो; तुम सीमारहित चेतना हो जिसका आनन्द और शांति बढ़ती ही जा रही है। तब जाकर तुम्हें यह ज्ञान होता है कि तुम इस शरीर से कहीं अधिक बढ़कर कुछ हो।
यदि शरीर से जुड़ी माया के कारण तुम इस आनन्दमयी व्यापकता को बार-बार भूल जाने के बजाय इसे अपने अंदर धारण कर पाओ तो तुम्हें अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान हो जाएगा।
क्या यह विचित्र बात नहीं है कि तुम यह जानते ही नहीं कि तुम कौन हो? तुम शरीर से जुड़ी पदवियों और नाशवान् भूमिकाओं को अपनी पहचान समझते हो। किन्तु क्या तुम यह शरीर हो? नहीं, बिल्कुल नहीं, क्योंकि तुम्हारा अस्तित्व तो इस शरीर के बिना भी बना रहता है। प्रत्येक रात्रि को यही तो होता है। यद्यपि नींद में तुम्हें अपने शरीर का भान नहीं रहता फिर भी तुम यह जानते हो कि तुम्हारा कोई अस्तित्व है।
जिस वस्तु को भी अपने शरीर से अलग करके तुम्हें यह चेतना बनी रहती है कि तुम्हारा अस्तित्व शेष है, वह वस्तु तुम नहीं हो सकते। इसलिए अपनी आत्मा से इन पदवियों को हटाकर दूर कर दो। “मैं सोचता हूँ, किन्तु मैं सोचा हुआ विचार नहीं हूँ। मैं महसूस करता हूँ, किन्तु मैं वह महसूस किया हुआ अहसास नहीं हूँ। मैं संकल्प करता हूँ, किन्तु मैं स्वयं संकल्प नहीं हूँ।” तो फिर बचा क्या? तुम्हारे भीतर वह, जो यह जानता है कि तुम्हारा अस्तित्व है, वह, जो यह अनुभव करता है कि तुम हो — यही वह सहज ज्ञान है जो इस बात का प्रमाण है कि आत्मा को अपने अस्तित्व का ज्ञान है।
मैंने भारत में यही ज्ञान पाया है : अपनी आत्मा में स्थित रहना तथा बंधनमुक्त रुख अपनाए रहना। जिन महान् गुरुओं का सान्निध्य मुझे मिला उनमें से कोई भी अपने आपको शरीर नहीं मानता था।
वे सभी देवपुरुष यह जानते थे कि यह सीमित शरीर तो उनकी सर्वव्यापी चेतना का एक साकार रूप मात्र है। वे महापुरुष अपने शरीर के प्रति वैसा भाव नहीं रखते जैसा कि साधारण मनुष्य रखते हैं। चलते समय तुम अपने बालों या अंगुलियों जैसे शरीर के किसी विशेष अंग को ही अपना स्वरूप नहीं मान लेते। तुम्हें केवल यही लगता है कि बस तुम्हारा शरीर चल रहा है। मेरे साथ भी ठीक ऐसा ही होता है। मुझे यह पता तो अवश्य है कि मेरा शरीर है किन्तु मैं यह जानता हूँ कि मैं आत्मा हूँ।
महान् गुरुओं ने मुझमें ऐसा ही परिवर्तन किया। अब केवल एक ही चेतना है : मुझे अपने वास्तविक आत्मन का बोध है। मेरी आत्मा की विशालता हर चीज़ में व्याप्त हो गई है और मुझे सभी चीज़ों का बोध है।…
काश कि तुम सब भी वह देख पाते जो मैं देखता हूँ और वह अनुभव कर पाते जो मैं करता हूँ। वास्तव में यदि तुम ध्यान करो तो ऐसा हो सकता है।