श्री श्री दया माता की पुण्य स्मृति
(31 जनवरी, 1914 – 30 नवम्बर, 2010)
प्रेम, विनय, एवं ईश्वर-समर्पित सेवा से परिपूर्ण एक जीवन

हमारी परमप्रिय अध्यक्षा एवं संघमाता, श्री श्री दया माता, ने 30 नवम्बर, 2010 को शान्तिपूर्वक इस ऐहिक जगत् का त्याग कर अपने आनन्दमय अनन्त ईश्वरीय-धाम में प्रवेश किया। परमहंस योगानन्दजी ने अपने मिशन के नेतृत्व एवं अपनी शिक्षाओं की ओर आकृष्ट होने वाले भक्तों का मार्गदर्शन करने वाली एक दिव्य माता के रूप में उन्हें चुना था; तथा पचास से भी अधिक वर्षों तक परमहंसजी की विश्वव्यापी संस्था की आध्यात्मिक प्रमुख के रूप में वे योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के संन्यासी शिष्यों एवं अन्य सदस्यों, दोनों के लिए, समान रूप से प्रेरणा, ज्ञान, एवं करुणा का शक्ति-स्रोत रहीं। वे सभी लोग उन्हें तहे दिल से याद करते रहेंगे जिनके जीवन उनके प्रेम एवं करुणा से, तथा उनकी आध्यात्मिक एकनिष्ठता के उदाहरण से अभिभूत हुए हैं। वे अक्सर कहा करती थीं, “दिव्य प्रेम तो इस जीवन की सीमाओं के परे भी पहुँच जाता है,” और वे सदा हमारे हृदयों में रहेंगी, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने गुरु के आदर्शों को अपने जीवन में पूर्णरूपेण आत्मसात् किया तथा जिसके हृदय में ईश्वर के सभी बच्चों के लिए अगाध करुणा और प्रेम था।
एक असाधारण जीवन
ईश्वर-प्रेम में निमग्न रहते तथा ईश्वर के प्रति समर्पणभाव के साथ अपने कार्य करते, श्री दया माताजी ने एक अत्यन्त विलक्षण जीवन व्यतीत किया— जिसके लगभग अस्सी वर्ष उन्होंने एक संन्यासिनी के रूप में अपने गुरु के आश्रमों में व्यतीत किए। वे एक अद्भुत शक्ति एवं सबके प्रति अनुपम प्रेम विकीर्ण करती थीं; और साथ-ही-साथ वे परमहंस योगानन्दजी के आध्यात्मिक एवं मानवतावादी कार्य के नेतृत्व के अथाह उत्तरदायित्वों का निर्वाह करती थीं तथा विश्व-भर में इस कार्य का प्रस्तार भी करती थीं। अपने नाम के अनुरूप, वे वास्तव में एक “दयामयी माँ” थीं, और सदा उन्होंने अपने जीवन में आने वाले सभी लोगों को निःशर्त प्रेम एवं करुणा दी, तथा वे उन सभी अगणित आत्माओं के लिए प्रतिदिन प्रार्थना किया करतीं जो उनसे दिव्य सहायता की याचना करते थे।
सच्ची विनम्रता की एक आदर्श उदाहरण, श्री दया माताजी ने अपनी चेतना में सदा ईश्वर को ही सर्वोच्च स्थान दिया। उन्होंने एक बार कहा था, “मैं प्रायः ख़ुद को यह याद दिलाती हूँ : मैं ठीक वही हूँ जैसी मैं ईश्वर एवं गुरुदेव की निगाहों में हूँ, न उससे अधिक न उससे कम। मैं ऐसा कोई दावा नहीं करती कि मैं त्रुटिरहित हूँ या मुझमें विलक्षण गुण एवं योग्यतायें हैं; इस जीवन में मेरा प्रयत्न है बस इस एक बात को साधना-और वह है, अपने ईश्वर के लिए मेरा प्रेम।” अपने इस लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठ रहते हुए वे एक ऐसी आदर्श माध्यम बनीं जिसके द्वारा ईश्वर का प्रेम अनगिनत आत्माओं तक पहुँच सका।
उनका जीवन एक ऐसा जीवन था जो अपने गुरु की शिक्षाओं द्वारा ईश्वर तथा मानव जाति की सेवा के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित था। वे इस बात का परम उदाहरण थीं कि अपनी दैनिक साधना का दृढ़ता से निर्वाह करते हुए, तथा अपने चुनौतीपूर्ण उत्तरदायित्वों के मध्य भी आनन्द एवं संतुष्टि प्राप्त करते हुए किस प्रकार एक संतुलित जीवन जीया जाए। उन्होंने एक बार कहा था, “ऐसा नहीं है कि हमारी दैनिक साधना के बावजूद भी मैं इन सभी कर्त्तव्यों का पालन कर रही हूँ, बल्कि मैं तो इस दैनिक साधना की वजह से ही ऐसा कर पा रही हूँ। मेरी शक्ति, प्रेरणा, तथा मार्गदर्शन का स्रोत यही है — प्रातः, मध्याह्न, एवं संध्याकालीन ध्यान; तथा जैसा कि परमहंसजी ने हमें सिखाया था, ध्यान के इन सत्रों के बीच के समय में सतत रूप से मन को ईश्वर पर केन्द्रित रखना।”
शिष्यों का एक विलक्षण परिवार
31 जनवरी, 1914, को फ़े राइट नाम से जन्मीं श्री दया माताजी का लालन-पालन एक विलक्षण परिवार में हुआ। उनके माता-पिता, श्रीमति रेचल टॅरी राइट तथा श्री क्लॅरेन्स ऍरन राइट, उन प्रारम्भिक मॉर्मन परिवारों से थे जिन्होंने देश के दूर दराज़ स्थानों से घोड़ा-गाड़ियों में आकर यूटाह राज्य की स्थापना की थी। उनकी माँ, बहन, तथा दो भाई, सभी परमहंसजी के शिष्य बने। सन् 1933 में उनकी बहन, सुश्री वर्जिनिया, जो कालांतर में आनन्द माता के नाम से जानी गई, सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की संन्यासिनी बनी, तथा कई वर्षों तक वे सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप निदेशक बोर्ड की सचिव एवं कोषाध्यक्ष के रूप में सेवारत रहीं। उनकी माताजी, जो कालांतर में श्यामा माता के नाम से जानी गईं, ने सन् 1935 में आश्रम-प्रवेश किया। इन दोनों शिष्याओं ने अपने देहावसान के समय तक गुरुदेव के निकटतम शिष्यों के दल में रहते हुए निष्ठापूर्वक सेवा प्रदान की। दया माताजी के बड़े भाई, श्री सी. रिचर्ड राइट, ने सन् 1935-36 के दौरान गुरुदेव के दीर्घकालीन भारत-भ्रमण में उनके सहायक की भूमिका निभाई, तथा परमहंसजी के आध्यात्मिक गौरवग्रन्थ, योगी कथामृत, में श्री रिचर्ड राइट की हृदयंगम यात्रा-दैनंदिनी से कई दृष्टांत उद्धृत हैं। वे तथा उनके छोटे भाई, श्री डेल राइट, जीवन-पर्यन्त सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की शिक्षाओं के अनुयायी रहे।
ईश्वर को जानने की एक गहन उत्कण्ठा
बचपन से ही दया माताजी के मन में ईश्वर को जानने की एक गहन उत्कण्ठा थी। आठ वर्ष की आयु में, जब उन्होंने स्कूल में भारत के बारे में पहली बार जाना, उन्होंने एक रहस्यमयी आन्तरिक जागृति का अनुभव किया, तथा इसके साथ ही इस दृढ़ विश्वास का भी कि भारत के पास ही उनके जीवन के परम लक्ष्य की कुन्जी भी है। घर पर लौटने के पश्चात उन्होंने अपनी माँ को बताया कि वे कभी शादी नहीं करेंगी और वे भारत जाएँगी।
उन्हें महसूस होने लगा कि गिरजाघर की शिक्षाओं में प्राप्त उनके अनुभवों में कुछ अधूरापन है, और उन्हें किसी ऐसी चीज़ की ललक थी जो उनकी ईश्वर पिपासा को शांत कर सके। जब वे पन्द्रह वर्ष की थीं तब किसी ने उन्हें भगवद्गीता की एक प्रति दी। उन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा क्योंकि इसके द्वारा उन्होंने जाना कि ईश्वर तक पहुँचा जा सकता है और उसे जाना जा सकता है, और यह भी कि ईश्वर की संतान दिव्य आत्मायें हैं जो अपने प्रयास द्वारा अपने दिव्य जन्मसिद्ध अधिकार, अर्थात् ईश्वर, के साथ अभिन्नता का अनुभव कर सकती हैं। यह जानने के साथ ही दया माताजी ने संकल्प लिया कि वे अपना जीवन ईश्वर की खोज में समर्पित कर देंगी।
श्री दया माताजी की श्री श्री परमहंस योगानन्द से प्रथम भेंट
1931 में, 17 वर्ष की आयु में, दया माता जी ने अपनी माँ तथा बहन के साथ साॅल्ट लेक सिटी में होटल न्यू हाउस में एक सत्संग में भाग लिया। वक्ता थे परमहंस योगानन्दजी, जो योग के विज्ञान पर देश भर में कक्षाओं की श्रृंखला के मध्य अमेरिका के सम्मानजनक सभागारों में खचाखच भरे हुए जनसमूहों को संबोधित कर रहे थे। यह असंभव प्रतीत होता था कि इस साॅल्ट लेक सिटी की शर्मीली तरुणी को उस गुरु से मिलने का कोई अवसर प्राप्त हो सकेगा। परन्तु, दया माताजी लम्बे समय से एक गम्भीर रक्त विकार से पीड़ित थीं और कक्षाओं में भाग लेते समय उनके सूजे हुए चेहरे को ढकने वाली पट्टियों ने महान् गुरु का ध्यान आकर्षित कर लिया।
उन्होंने श्री योगानन्दजी से भेंट के बारे में बताया: “मेरा सर्वस्व उस ज्ञान और प्रेम से ओतप्रोत था जो मेरी आत्मा में उमड़ रहा था और मेरे हृदय एवं मन को सराबोर कर रहा था।” वे महान् गुरु की शिष्या बनने के लिए कृतसंकल्प थीं।

वीडियो : श्री दया माता परमहंस योगानन्दजी के साथ अपनी पहली मुलाकात का वर्णन करती हैं [अंग्रेज़ी]
श्री दया माताजी द्वारा एसआरएफ/वाईएसएस में संन्यास ग्रहण
दया माताजी उस घटना को याद करती हैं जब परमहंसजी ने उनसे पूछा कि क्या वे यह विश्वास करती हैं कि ईश्वर उन्हें स्वस्थ कर सकते हैं। उनके हाँ कहने पर परमहंसजी ने उनके भ्रूमध्य पर स्पर्श किया और उनसे कहा, “आज से ही तुम स्वस्थ हो गई हो। एक सप्ताह के भीतर इन पट्टियों की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। तुम्हारे चेहरे के निशान मिट चुके होंगे।” और वैसा ही हुआ जैसा उन्होंने घोषित किया था।
उसके पश्चात, जल्दी ही, अपनी माँ के सहयोग से, दया माताजी ने लॉस एंजिलिस पहुँच कर 19 नवम्बर, 1931 को सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप में संन्यास ग्रहण कर लिया। एक उत्सुक और ग्रहणशील हृदय के साथ उन्होंने अपने गुरु की शिक्षाओं को आत्मसात् किया, और गुरुदेव ने उनमें वह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की क्षमता देखी जो कालांतर में उन्हें उनके मिशन में निभानी थी। माउंट वॉशिंग्टन पहाड़ी पर स्थित सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय में उनके प्रथम क्रिसमस-पर्व की घटना है जब परमहंसजी ने उस दीवान पर एक काँच का अण्डा रख दिया जिस पर वे जानते थी कि दया माताजी बैठेंगी। जब माताजी ने उनसे पूछा कि उन्होंने वह अण्डा वहाँ क्यों रखा, उन्होंने कहा : “तुम मेरे इस परिवार के लिए प्रेरणा-उदाहरण हो। जब तुम आई थीं, मैं जान गया था कि अनेक सच्चे भक्त इस पथ की ओर आकृष्ट होंगे।
गुरूसेवा में समर्पित
अगले वर्ष, परमहंसजी ने उन्हें संन्यास-दीक्षा की वे प्रतिज्ञायें ग्रहण कराईं जिनका अनुसरण प्राचीन स्वामी सम्प्रदाय में किया जाता है (ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, आज्ञाकारिता, तथा ईश्वर एवं गुरु के प्रति निष्ठा)। इस तरह, ईश्वर एवं गुरु के प्रति पूर्णरूपेण समर्पण, दैनिक ध्यान, तथा दूसरों की निःस्वार्थ सेवा के जीवनपर्यन्त अभ्यास के प्रति अपने हृदय एवं अपनी आत्मा से संकल्प लेते हुए वे सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप/योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया की प्रथम संन्यासिनियों में से एक हुईं।
प्रारम्भ से ही यह स्पष्ट था कि महान् गुरु ने दया माताजी को एक विशेष भूमिका निभाने के लिए चुन रखा था। बाद में उन्होंने दया माताजी को बताया कि उन्होंने उन वर्षों में उन्हें वही कठोर प्रशिक्षण दिया जो उनके गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी ने उन्हें दिया था — एक महत्त्वपूर्ण कथन, क्योंकि आगे चलकर दया माताजी को उसी आध्यात्मिक एवं संगठनात्मक दायित्व का उत्तराधिकार पाना था जो श्रीयुक्तेश्वरजी ने परमहंसजी को प्रदान किया था।
बीस वर्षों से भी अधिक समय तक श्री दया माताजी परमहंसजी के उन निकटतम शिष्यों के छोटे-से दल का हिस्सा रहीं जो लगभग हमेशा ही उनके साथ रहते थे। उन्होंने परमहंसजी की निजी विश्वसनीय सचिव के रूप में सेवा की, तथा परमहंसजी के सभी व्याख्यानों, प्रवचनों, एवं कक्षाओं को शॉर्टहैंड में लिपिबद्ध करने का दायित्व भी उन पर रहा। ध्यान-योग पद्धतियों पर सविस्तार दिशा-निर्देशों तथा आध्यात्मिक जीवन जीने की कला को पाठमाला के रूप में संकलित करने में भी उन्होंने सहायता की। ये ही वे पाठ हैं जो योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फेलोशिप पाठमाला के सदस्यों के लिए आज भी मुद्रित एवं प्रेषित किए जाते हैं।
“मेरा कार्य अब समाप्त हुआ, अब तुम्हारा कार्य शुरू होता है।”
जैसे-जैसे वर्ष बीतते गए, गुरुदेव उन्हें अधिकाधिक उत्तरदायित्व सौंपते चले गए; और अपने जीवनकाल के अन्तिम चरण में वे अपने संन्यासी शिष्यों से उनकी उस विश्वव्यापी भूमिका के बारे में खुल कर कहने लगे जो कालांतर में उन्हें निभानी थी। गुरुदेव के जीवन के अन्तिम वर्षों में जैसे-जैसे दया माताजी के दायित्व बढ़ते गए, वैसे वैसे संस्था के नेतृत्व का बढ़ता हुआ ज़िम्मा उन्हें एक घोर परीक्षा दिखाई पड़ने लगा। उन्होंने गुरुदेव से निवेदन किया कि वे उनकी जगह अन्य किसी भी व्यक्ति का चयन कर उन्हें उस व्यक्ति के नेतृत्व में सेवा करने की अनुमति दें। किन्तु गुरुदेव अपने निर्णय पर अडिग रहे। अन्य सभी कुछ की अपेक्षा ईश्वर एवं अपने गुरु की इच्छा को साकार करने की आकांक्षा को सर्वोपरि रखते हुए दया माताजी ने आंतरिक रूप से अपने गुरु की आज्ञा के सम्मुख समर्पण कर दिया। गुरुदेव ने उनसे कहा, “मेरा कार्य अब समाप्त हुआ, अब तुम्हारा कार्य शुरू होता है।”
परमहंस योगानन्दजी के देहत्याग के तीन वर्ष बाद, सन् 1955 में, दया माताजी ने राजर्षि जनकानन्द के ब्रह्मलीन होने पर योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अध्यक्ष पद का उत्तराधिकार सम्भाला। श्री योगानन्दजी की आध्यात्मिक उत्तराधिकारिणी के रूप में उन्होंने योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के सदस्यों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के दायित्व का निर्वाह किया; अमेरिका, जर्मनी, तथा भारत स्थित योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के आश्रमों में निवास करने वाले संन्यासी शिष्यों के प्रशिक्षण, तथा संस्था द्वारा की जाने वाली अनेक विश्वव्यापी आध्यात्मिक एवं मानवतावादी सेवाओं के संचालन के कार्यभार का वहन किया। संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप, मेक्सिको, तथा जापान स्थित सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप केन्द्रों के दौरे तथा क्रियायोग दीक्षा हेतु इन देशों की यात्रायें करने के अलावा उन्होंने भारत में संस्था की गतिविधियों का मार्गदर्शन करने के लिए अपने जीवनकाल में भारतवर्ष के पाँच व्यापक दौरे भी किए।
श्री दया माताजी का नेतृत्व

वीडियो : श्री दया माता क्रिसमस के अवसर पर एसआरएफ़ सदस्यों का अभिवादन करती हैं [अंग्रेज़ी]
श्री श्री दया माता के नेतृत्व में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप ने समूचे विश्व में अत्यन्त उल्लेखनीय रूप से विस्तार पाया। उनके ब्रह्मलीन होने के समय तक संस्था अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त कर चुकी थी, जैसे, साठ देशों में योगदा सत्संग सोसाइटी/सेल्फ़ रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के 600 से अधिक मन्दिर, केन्द्र, एवं ध्यान-समूह; समर्पित संन्यासियों एवं संन्यासिनियों के बारह से अधिक समूह; एक प्रकाशन विभाग जो परमहंस योगानन्दजी एवं उनके संन्यासी शिष्यों के लेखों एवं व्याख्यानों को अनेक भाषाओं में प्रकाशित करता है; विश्व भर के शहरों में श्री श्री परमहंस योगानन्द की शिक्षाओं पर व्याख्यानों एवं कक्षाओं की शृंखलाएँ; अनेक देशों में योगदा सत्संग सोसाइटी/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के सुन्दर मन्दिरों की स्थापना; रोगमुक्ति एवं विश्व शांति के प्रति समर्पित एक विश्वव्यापी प्रार्थना मण्डल; तथा अन्य आध्यात्मिक सेवाएं एवं गतिविधियाँ।
अपने सेवा-समर्पित जीवन के लगभग अस्सी वर्षों में उन्होंने कभी-भी प्रभुता अथवा पद की चाह नहीं रखी। उनका एकमात्र लक्ष्य था अपने गुरु की शिक्षाओं की शुद्धता एवं समग्रता की रक्षा करना, अपने अन्दर एक सच्चे शिष्य के गुणों को परिपक्व करना, तथा ऐसे सभी व्यक्तियों की आत्माओं को स्पर्श करना जो आध्यात्मिक बल एवं बोध की खोज में उनके पास आए हों। इन लक्ष्यों के प्रति अपने अनन्य निष्ठाभाव द्वारा उन्होंने विश्व भर में अगणित सत्यान्वेशियों को आशीष एवं प्रेरणा दी।
अन्तिम वर्ष और प्रेम की विरासत
योगदा सत्संग/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन पत्रिका में प्रकाशित अपने नियमित लेखों, आध्यात्मिक परामर्श प्रदान करने वाले सामयिक एवं द्वैमासिक पत्रों, तथा व्यक्तिगत पत्राचार में भक्तों को लिखे गए अनेकानेक पत्रों के माध्यम से योगदा सत्संग सोसाइटी/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के विश्वव्यापी परिवार के लिए मार्गदर्शन, प्रेरणा, एवं आध्यात्मिक प्रोत्साहन का अखंड स्रोत बनी रहीं। परन्तु उनके जीवन के अन्तिम वर्षों का अधिकांश समय ध्यान एवं उन सभी व्यक्तियों के लिए गहन प्रार्थना में व्यतीत हुआ जिन्होंने उनकी सहायता एवं आशीर्वादों के लिए अनुरोध किया।
किन्तु उनकी सर्वोपरि इच्छा यही रही कि दैनिक ध्यान द्वारा वे अपने हृदय में ईश्वर एवं ईश्वर के सभी बच्चों के लिए गहन प्रेम भाव का संवर्द्धन कर सकें। उन्होंने कहा :

वीडियो : श्री मृणालिनी माता द्वारा श्री दया माता का वर्णन [अंग्रेज़ी]

“निर्मलता तथा निःशर्त रूप से प्रेम करने की क्षमता चिन्तन से, ईश्वर से प्रेम करने से, तथा मौन की भाषा में उनसे वार्त्तालाप करने से आती है। मुझे नहीं लगता कि मेरे जीवन में ऐसा एक भी क्षण है जब मैं ईश्वर से बात नहीं कर रही होती। मैं इसकी अधिक चिन्ता नहीं करती कि ईश्वर मुझसे बात करते हैं या नहीं। शायद ऐसा सोचने वाली मैं अनोखी हूँ। किन्तु मैं केवल इतना जानती हूँ कि आन्तरिक रूप से ईश्वर के साथ वार्त्तालाप करने से कितना आनन्द प्राप्त होता है, और फिर अचानक ही चेतना में दिव्य प्रेम अथवा परमानन्द अथवा ज्ञान का एक अद्भुत रोमांच प्रवाहित होता महसूस होने लगता है | तब मैं जान जाती हूँ: ‘आह जगन्माता! यह तुम्ही तो हो जो मुझे वह सब प्रदान करती हो जिसे मैं इस जीवन में खोजती हूँ।’ ईश्वर ही एकमात्र वास्तविकता हैं; केवल वे ही जीवन हैं।”
बहुत समय जिन व्यक्तियों ने वास्तव में ईश्वर के प्रति निःशर्त भक्तिभाव का जीवन व्यतीत किया होता है उनका प्रेरणास्पद प्रभाव उनके जीवनकाल के बाद भी इस संसार को प्राप्त होता रहता है। इस पल भी हम दया माताजी के आशीर्वाद हम तक पहुँचते हुए महसूस कर सकते हैं, जो हमारी आध्यात्मिक खोज में हमें मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन प्रदान कर रहे हैं। अपने सम्मिलित हृदयों का प्रेम एवं कृतज्ञता उन तक प्रेषित करने में हमारा साथ दें, इस आश्वासन के साथ कि उनका दिव्य प्रेम एवं करुणा सदा हमारे साथ रहेंगे।

वीडियो : श्री दया माता : “जहाँ हम सब फिर मिलेंगे” [अंग्रेज़ी]